कहाँ गए वो दिन

बचपन में हम लोगों के बाल काटने के लिये गांव के ही नाई दरवाजे पर आ जाया करते थे.

घर में पापा, चाचा और बाबा लोगों के दाढ़ी और बाल कटवाने के लिये रविवार का दिन निश्चित रहता था.

उसी दिन महीने में एक बार हम बच्चों के बाल भी काट दिये जाते थे. उसके बदले नाई के परिवार को साल में दो बार अनाज मिलता था. इसके अलावा शादी विवाह तथा अन्य अवसरों पर कपड़े तथा पैसे वगैरह भी दिये जाते थे.

फिलहाल अब धीरे-धीरे वह प्रथा बंद हो गयी और हमें बाल कटवाने सैलून में जाना पड़ता है जहां बाल कटने के तत्काल बाद पैसे के रुप में भुगतान करना पड़ता है.

लेकिन तब और अब में यह अंतर है कि जब घर पर आकर नाई बाल काटता था तब बाल महीने भर से ज्यादा समय तक नहीं बढ़ते थे, मतलब नाई बाल बहुत छोटे-छोटे काट दिया करता था. जबकि अब सैलून में बार-बार कहने के बावजूद भी बाल उस कदर छोटे नहीं हो पाते जितने की इच्छा रहती है.

वास्तव में यह व्यापार का फंडा है. जब नाई को बाल काटने के बदले साल में सिर्फ दो बार अनाज मिलता था तब काम के हिसाब से उसे मजदूरी कम लगती थी. लिहाजा वह अपना काम कम करने की गरज से हमारे बाल इस कदर छोटे कर देता था कि दो महीने तक वह बढ़ ही नहीं पाते थे.

मतलब निश्चित मजदूरी में वह आधे साल में अधिक से अधिक तीन बार ही हमारे बाल काटता था. जबकि सैलून वाले के पास अगर कोई आदमी दो महीने में एक बार जाय तो उसका धंधा मंदा पड़ जायेगा.

इस वजह से वह अपने यहां आने वाले ग्राहक का बाल सिर्फ इतना ही छोटा करता है कि लगभग बीस दिनों में फिर से उसके सैलून में लौटना पड़ता है.

वास्तव में यह बात मैं तब सोचने लगा जब मुझे एक खबर पढ़ने को मिली जिसमें बताया गया था कि अमेरिकी प्रांत कैलिफोर्निया के लिवरमोर शहर में 1901 मे लगाया गया एक बल्ब तब आज तक लगातार जल रहा है.

लिवरमोर के एक दमकल विभाग के आफिस में लगा 4 वॉट बिजली से चलने वाला यह बल्ब कभी फ्यूज नहीं हुआ. दिन में यह चौबीसों घंटे जलता रहता है. जबकि आज के समय में अच्छी क्वालिटी का भी बल्ब लगभग साल भर में तो फ्यूज हो ही जाता है.

दरअसल 1924 में बल्ब बनाने वाली कंपनियों ने गुप्त रुप से बैठक करके यह निर्णय लिया था कि वह लगभग 1000 घंटे तक जलने वाले बल्ब ही बनायेंगी. क्योंकि उससे पहले के बल्बों की औसत आयु 2500 घंटे से अधिक हुआ करती थी. इस लिहाज से कम उम्र के बल्ब बनाने पर कंपनियों को लगातार ग्राहक मिलते रहेंगे.

कंपनियों का यह फैसला उस समय के लिहाज से तो ठीक कहा जा सकता है क्योंकि उस दौर में बल्बों का उपयोग करने वाले लोग बहुत कम थे. लेकिन आज जब इनकी उपयोगिता बहुत ज्यादा बढ़ गयी है फिर भी कम उम्र के बल्ब बनाना बदस्तूर जारी है.

ऐसा नहीं है कि यह मामला सिर्फ बल्ब या बाल के साथ ही लागू होता हो. आज जितनी भी उपभोक्ता वस्तुएं हैं उनपर कंपनियां यह फार्मूला लागू करके ही अपना व्यापार करती हैं.

तभी तो खाने-पीने वाली चीजों के अलावा भी ऐसी बहुत सी चीजें हैं जो लम्बे समय तक उपयोग में लायी जा सकती थीं, लेकिन उनकी औसत उम्र इस कदर कम रहती है कि हम चाहकर भी उनका लंबे समय तक उपयोग नहीं कर पाते हैं.

तभी तो आयुर्वेद में कभी भी खराब न होने वाले शहद से लेकर जड़ी-बूटी तक के पैकेटों पर उपयोग की अंतिम तारीखें दर्ज होकर आने लगी हैं.

बाकी आपके घर में इस्तेमाल होने वाले चाकू से लेकर आलमारी और टीवी, फ्रिज तक की औसत आयु को इन कंपनियों ने इस कदर कम कर दिया है कि आप चाहकर भी इन्हें अगली पीढ़ी को दिखाकर अपने जमाने की टीवी और अपने जमाने का फ्रिज नहीं कह पायेंगे.

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