ये अस्सी का दशक था. उस सुबह सूरज ने दस्तक भी नहीं दी थी कि आमतौर पर सुनसान रहने वाले लखनऊ के रास्ते सरकारी गाड़ियों के काफिलों की धमक से जाग पड़ते हैं.
ये सरकारी गाड़ियां सुबह के धुंधलके में चुपचाप लखनऊ की ओर बढ़ी जा रही हैं. सुबह के उजाले में सरकारी काफिला खुद को शहर के सबसे रसूखदार सांसद रामेश्वर सिंह के घर के सामने पाता है.
गाड़ियों में बैठे अधिकारियों के होश फाख्ता हो गए हैं. इस बारे में उन्हें भी नहीं पता था कि रेड इस दबंग नेता के घर मारी जा रही है.
रामेश्वर सिंह सुबह की चाय सुड़कते हुए आयकर विभाग के अधिकारी अमय पटनायक पर उचटती निगाह डालते हुए कहता है, ‘इस घर में कोई सरकारी नौकर मच्छर मारने नहीं आ सकता, तू रेड मारने आया है’.
इस पर पटनायक कहता है, ‘मैं बस ससुराल से शादी वाले दिन खाली हाथ लौटा हूं, वरना जिसके घर सुबह सुबह पहुंचा हूं कुछ लेकर ही आया हूं’.
निर्देशक राज कुमार गुप्ता की फिल्म ‘रेड’ का ये दृश्य दर्शक को पहले पांच मिनट में ही एंगेज कर लेता है.
1981 की गर्मियों में एक दबंग उद्योगपति-नेता के घर एक ईमानदार अड़ियल आयकर अधिकारी ने देश के इतिहास की सबसे बड़ी रेड मारी थी.
फिल्म का कथानक इसी सच्ची घटना पर आधारित है. उस इनकम टैक्स कमिश्नर का नाम था शारदा प्रसाद पांडे और जिनके घर ये रेड मारी गई थी, उनका नाम था सरकार इंदरसिंह.
इस छापे में 420 करोड़ रुपये के गहने, प्रॉपर्टी और कैश बरामद हुआ था. 18 घंटे तक चली इस रेड में पैंतालीस लोगों को नोट गिनने के काम में लगाया गया था.
फिल्म उन्हीं अठारह घंटों को मिनट दर मिनट पेश करती है. भरपूर मनोरंजन के साथ निर्देशक उस सच्ची घटना को पेश करने में सफल रहे हैं.
जब आप स्क्रीनप्ले पर मेहनत करते हैं तो इसके सुखद परिणाम दर्शकों की तालियों के रूप में प्राप्त होते हैं.
फिल्म के एक दृश्य में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का किरदार दिखाया गया है जो फोन पर कमिश्नर से रेड रोकने के लिए कहती है.
कमिश्नर कहता है, ‘रुक जाएगी मैडम लेकिन आप आर्डर फैक्स कर दीजिये’. ये सुनकर पीएम मैडम फोन रख देती है.
चूँकि निर्देशक स्पष्ट कर देते हैं कि कहानी में कल्पना का समावेश किया गया है इसलिए कह नहीं सकते कि ऐसा हुआ ही होगा. दोनों ही बातें हैं.
किरदारों की बात करें तो निःसंदेह अजय देवगन और सौरभ शुक्ला के सुंदर अभिनय से ही फिल्म स्पंदित होती है. इन्हीं दोनों किरदारों ने अंत तक फिल्म को कंधों पर ढोया है.
सौरभ शुक्ला अदाकारी में देवगन से आगे निकल गए हैं, इसमें कोई संदेह नहीं. अठारह घंटे के घटनाक्रम में उनके अभिनय के कई शेड्स हम देख पाते हैं.
इलियाना डीक्रूज़ ने अपना काम बखूबी निभाया है. उनके हिस्से में कुछ कॉमिक दृश्य आए हैं, जिनमे वे जीवंतता बिखेर देती है.
चूँकि फिल्म एक सच्चे घटनाक्रम पर आधारित है इसलिए क्लाइमैक्स उतना भव्य नहीं रखा जा सकता था और न ही बेवजह फिल्म की लंबाई बढ़ाई जा सकती थी इसलिए कहानी केवल दो घंटे में ही ख़त्म हो जाती है.
एक कसी हुई फिल्म बताती है कि आज़ादी के बाद बेलगाम नेताओं ने इतना काला धन जमा कर लिया है कि दीवारों में, घर के बगीचों में दबाया जा रहा है.
फिल्म ऐसे ईमानदार अधिकारियों के बारे में भी बताती है जो देश का पैसा इन चोरों से निकालने के लिए जान की बाज़ी तक लगा देते हैं.
फिल्म के अंत में कैप्शन की मदद से बताया जाता है कि ऐसे नेताओं के घर पहुंचे अधिकारियों के साथ कितना बुरा सलूक किया जाता था.
एक रेड के दौरान तो तीन अधिकारियों को सीमेंट ग्राइंडर में फेंक दिया गया था लेकिन एक महिला अधिकारी ने उन्हें बचा लिया था.
फिल्म की शुरुआत में कौटिल्य के अर्थशास्त्र का एक सूत्र दिखाया जाता है. उसका आशय है कि शासन का उत्तरदायित्व बनता है कि राज्य का धन प्रवाहमान रहे.
देश का धन प्रवाहमान रखने वाले इन चंद ईमानदार कर्मठ अधिकारियों को सम्मान देने का प्रयास करती है राज कुमार गुप्ता की फिल्म ‘रेड’.