आपकी ये चाइल्ड साइकोलॉजी मुझे बहुत काम आई…

मेरी एक सहेली थी, बहुत पढ़ी लिखी… चाइल्ड साइकोलॉजी में एमए. मैं उससे उम्र में छोटी थी… इतनी छोटी कि मुझे साइकोलॉजी की स्पेलिंग भी नहीं आती थी.

उसकी शादी के बाद भी अक्सर उसके घर मिलने जाती थी… दो बच्चे हुए, कुछ बड़े हुए… तब तक आना जाना रहा…

बच्चा साल भर का था उसका… तब मैंने देखा उसे… आधा पैकेट पारले जी के बिस्किट दूध में घोल कर खिलाती थी…

मैं माँ नहीं बनी थी तब तक लेकिन फिर भी उसे सलाह देती थी… बिस्किट कैसा भी हो मैदा होता है उसमें…. लापसी बना दिया कर रवे या आटे की, वैसे भी जहां तक मुमकिन हो बाहर की बनी चीज़ें इतने छोटे बच्चों को नहीं खिलाते…

उसने सुना अनसुना कर दिया…

बच्चे उसके अक्सर खाने पीने में नखरे करते थे, सभी के करते हैं… वो चार साल के बच्चे को बाजू के किराना स्टोर में भेज देती थी… जा अपनी पसंद के चिप्स, कुरकुरे लेकर खा लेना… बड़े घर की बहू बन गयी थी तो किराने वाले के पास डायरी मेन्टेन होती थी… महीने भर जो खरीदना हो खरीद लो… महीने के महीने पैसे चुका दिए जाते थे…

पहले खुद भेजा, फिर उसके बच्चे बिना बताये खुद जाकर कुछ भी खरीद कर खा लेते थे… तो घर के खाने में बच्चों को और अरुचि होने लगी…

बच्चे ने दूध नहीं पिया तो बोर्नविटावाले दूध का क्या करेंगे कहके वाश बेसिन में बहा दिया….

ज़रा सी सर्दी हुई … घर में फ्रिज में रखी एंटीबायोटिक या सर्दी की एलोपैथिक दवाइयां बच्चों के मुंह में ठूंस दी…

ज़रा सा पेट दर्द हुए फिर वही एलोपैथिक… बच्चे की आँखों पर मोटा चश्मा भी लग गया… इतने छोटे बच्चे को इतनी दवाइयां पिलाते मैंने अपनी आँखों से देखा कि उस पर दवाइयों ने असर करना छोड़ दिया…

ज़रा सा मिट्टी या रेत में खेलता तो बच्चे की त्वचा पर लाल चकत्ते उभर आते…

प्राइमरी कॉम्पलेक्स पता नहीं क्या होता है, डॉ ने लंबा चौड़ा इलाज शुरू कर दिया… और वो उसे दवाई खिलाती रही…

ये तो हुई सेहत से सम्बन्धित उसका चाइल्ड साइकोलॉजी का ज्ञान, अब ज़रा व्यवहार की बातें…

हम ज़मीन पर बैठकर खाना खा रहे थे… बच्चा उठा और उसकी थाली में पैर रखते हुए खेलने के लिए जाने लगा…. मैंने उसकी तरफ देखा, तो कहने लगी बच्चे हैं, बात बात पर डांटना ठीक नहीं होता… बच्चों में डिप्रेशन आता है… मैंने सोचा यार चाइल्ड साइकोलॉजी में एमए किया है… ठीक ही कह रही होगी….

खाना ख़त्म हुआ ज़रा सी कड़ाही में सब्ज़ी बची थी… मैं उसकी मदद के लिए रसोई से कटोरी लाकर उसे खाली करने लगी तो कहने लगी जाने दे, सुबह की सब्ज़ी हमारे यहाँ शाम को कोई नहीं खाता… उसने बची सब्ज़ी झूठे बर्तनों के साथ रख दी…

मैं उसे तब से जानती थी जब वो अपने मध्यम वर्गीय परिवार में माता पिता के साथ रहती थी… कई बार पैसों की बहुत तंगी भी देखी है उसके घर में… आज बड़े घर में ब्याह कर उसने एक नया रूप धर लिया था…

मैंने कहा झूठे में क्यों फेंकना सब्ज़ी, नाली में बहाने से बेहतर है बाहर गाय को डाल देना… तो बड़े शान से कहने लगी हम बहुत पॉश इलाके में रहते हैं… हमारी कॉलोनी में आवारा गाय, कुत्ते नहीं घुसने दिए जाते…

बच्चे बड़े हो रह थे उसके… एक दिन मैंने उसे अपने बच्चे को बहुत बुरी तरह पीटते हुए देखा… मैंने बीच बचाव किया तो कहने लगी, रहने दे शैफाली… इनको जितना लाड़ प्यार देते हैं, ये कुछ ज़्यादा ही सर पर चढ़ गए हैं…

अरे ऐसा भी क्या कर दिया जो इतनी बुरी तरह से मार रही हो…

अरे अन्न का अपमान करते हैं आजकल के ज़रा ज़रा से बच्चे, खाना पसंद नहीं आया तो थाली उठाकर फेंक दी… कल इसके लिए इतनी सुन्दर शर्ट लाई थी, पसंद नहीं आई जनाब को तो गुस्से में उस पर कैंची चला दी…

वैसे ही इनका धंधा ज़रा मंदा चल रहा है, मैं एक एक पैसा इन बच्चों के लिए जोड़ती हूँ और इनको देखो तो इतने नखरे…

कल तो हद ही कर दी… मेरे पर्स में से पैसे….. वो बोलते बोलते रुक गयी…. लेकिन मैं समझ गयी थी क्या हुआ… मैं कुछ नहीं बोली… मैं बोलती भी तो किस कान से सुनती वो… लौट आई… उसके घर जाना कम हो गया… फिर ज़िंदगी की व्यस्तताओं के बीच रिश्ते छूट गए…

उसका वो पॉश शब्द हमेशा कान में बजता रहा और मुझे पाश याद आते रहे…
‘मैं आदमी हूं बहुत-बहुत छोटा-छोटा कुछ जोड़कर बना हूं.’….

लेकिन बाद में उसकी वो चाइल्ड साइकोलॉजी मुझे बहुत काम आई…

मेरे बच्चे शाम को घर के बाहर खेलने निकलते हैं… घर के बाहर घूमने वाले आवारा कुत्तों के साथ एक दिन तीन छोटे छोटे पिल्ले दिखे… मेरे बच्चे तो देखते से ही निहाल हो गए… नाम भी रख लिया…. ये टिंटी है, ये टॉमी है और ये मैरी है…

मैं तो हमेशा कन्फ्यूज़ हो जाती हूँ… तीनों के नाम में… लेकिन ये दोनों उन तीनों की आदतों से भी वाकिफ़ है… खूब खेलते हैं शाम को… कभी उनके मुंह को छूएंगे, कभी पूंछ से खेलेंगे… मैं चिल्लाती रह जाती हूँ लेकिन दादा कहने लगे… ये खेल है उनका… तीनों पिल्लों को भी खूब मज़ा आता है… जिस दिन ये लोग खेलने के लिए बाहर नहीं निकलते… दरवाज़े के बाहर खड़े खड़े पूंछ हिलाते रहते हैं…

दरवाज़े पर रोज़ आने वाली गायों के नाम भी उनके रंग के हिसाब से रख दिए गए हैं.. ये लाली है, ये कल्लो है, ये सबसे सुन्दर है इसलिए इसका नाम राधा है…

कल्लो ज़रा मरखानी है, दरवाज़े पर खड़ी दिख जाए तो उसको नाम से बुलाना पड़ता है तो वो जवाब में आवाज़ लगाती है… जिस दिन आवाज़ न दो तो गुस्सा भी करती है…

शाम को दूध के साथ मिलने वाले बिस्किट के साथ उनको अपने दोस्त पिल्लों के लिए भी बिस्किट चाहिए… कई बार अपने हिस्से की टॉफ़ी भी खिला देते हैं… एक दिन मैंने कहा तुम्हारे पिल्लों को रोज़ रोज़ देने के लिए बिस्किट नहीं है मेरे पास… रोटी ले जाया करो…

तो उनको मैंने अक्सर चोरी से अपने हिस्से की बिस्किट चुपके से अपनी जेब में रखते देखा अपने दोस्त पिल्लों को खिलाने के लिए… कितनी प्यारी चोरियां हैं ये… ये यदि आपके तथाकथित पढ़े लिखे चाइल्ड साइकोलॉजी वाले लोगों के कोर्स में नहीं सिखाया जाता तो मैं कहूंगी हम अनपढ़ ही सही और मुझे गर्व रहेगा मेरे बच्चों की इन चोरियों की आदत पर…

और हाँ मेरे बच्चे आज भी मिट्टी में खेलते हैं, छोटे को एलर्जी है धूल मिट्टी से… खांसी हो जाती है… लेकिन उसे भी पता है… मम्मा वो आप शहद में डालकर त्रिफला चटा देना लेकिन आज सामने वाले अंकल का घर बन रहा है ना, वहां रेत आई है, मुझको शंख और सीपियाँ इकट्ठी करने जाने देना…

और वो टॉमी और मैरी है ना उनको भी साथ में रेत के टीले पर चढाऊंगा… टिंटी को नहीं ले जाएंगे वो बहुत डरता है बेचारा… भैया के साथ वो नीचे ही खेलता रहेगा… भैया को भी आपकी तरह ऊंचाई से डर लगता है ना…. खी खी खी… शरारती हंसी… और मेरा जवाब सुनने से पहले ही दोनों का भाग जाना…

बस इतना याद रखिये बच्चों की परवरिश चाइल्ड साइकोलॉजी पढ़कर नहीं होती, बस आपको देखकर ही बच्चे सबकुछ सीख रहे हैं…

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