फरवरी में भारत से लौटा. जो एक प्रवाह अनुभव किया, उसके आधार पर मेरा आंकलन था कि 2019 के लिए स्थिति बहुत अनुकूल नहीं है.
पर फिर भी मैं इन उपचुनावों के परिणामों में ज्यादा अर्थ नहीं ढूंढ रहा. राजनीति को मैंने खूब घुस के देखा हो ऐसा नहीं है.
हमेशा परिधि पर खड़े रहकर ही देखा है. पर निरपेक्ष नहीं रहा हूँ. जो देखा है उसे ध्यान से देखा है.
चुनाव 1977 से आजतक के सारे चुनाव मुझे याद हैं, सबका माहौल याद है. मेरे गृह नगर जमशेदपुर में 1997 से हुए सारे चुनाव साफ साफ याद हैं.
इस बीच दो उपचुनाव भी हुए हैं. उपचुनाव मुख्य आम चुनावों के कोई संकेत देते हैं ऐसा मुझे नहीं लगता.
2007 में जमशेदपुर में सुनील महतो की हत्या के बाद हुए उपचुनाव में उनकी पत्नी सुमन महतो ने षाड़ंगी जी को हराया था. कद में षाड़ंगी जी के सामने सुमन महतो कहीं नहीं खड़ी होती.
जमशेदपुर जितना झामुमो के लिए अनुकूल है उससे ज्यादा भाजपा के लिए अनुकूल रहा है. फिर भी षाड़ंगी जी हार गए.
साफ दिखाई दिया, भाजपा कार्यकर्ताओं में कोई खास उत्साह नहीं था. चुनाव प्रचार की गाड़ियाँ ऑफिस से निकलती थीं, सारे दिन किसी चौराहे पर शांति से खड़ी रहती थीं.
बूथ पर कार्यकर्ता नदारद थे. स्पष्ट था कि षाड़ंगी जी हार रहे हैं. पर 2009 में वहीं से अर्जुन मुंडा ने 1 लाख 80 हज़ार वोटों से जीत हासिल की.
2011 में फिर जमशेदपुर में उपचुनाव हुए. इस बार झाविमो के डॉ अजय कुमार ने तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष दिनेशानंद गोस्वामी को डेढ़ लाख से अधिक वोटों से हराया.
जमशेदपुर में अजय कुमार की पुरानी साख रही है एक धाकड़ एसपी के रूप में. पर वही अजय कुमार 2014 में विद्युत महतो से एक लाख वोटों से हार गए.
उपचुनाव और भाजपा का एक अजीब नाता है. उपचुनाव व्यक्ति अपनी ताकत पर जीतता है. उससे देश की राजनीति की सेहत पर कोई खास असर नहीं पड़ता. तो संगठन सक्रिय नहीं होता. स्थानीय राजनीति के सूत्र ही भारी पड़ते हैं.
और भाजपा में कोई भी नेता संगठन के बाहर अपनी औकात में कुछ भी नहीं है. हमने कल्याण सिंह, उमा भारती, जसवंत सिंह… सबकी औकात नाप ली.
अगर मन ना भरा हो तो कभी मणिनगर या गांधीनगर से मोदीजी की औकात भी नाप लीजिएगा संगठन के गणित को अलग करके…
इसलिए किसी भी उपचुनाव के परिणाम को पार्टी का शक्ति प्रदर्शन गिनने की भूल ना करें.
और भाजपा के संदर्भ में सिर्फ पार्टी की शक्ति नहीं, पूरे संघ-संगठन की शक्ति का आंकलन करना होता है. वह शक्ति जीवित है, जागृत है… और उसकी शक्ति 2019 में दिखाई देगी. और वह शक्ति अपने मूल रूप में देशद्रोही शक्तियों की सम्मिलित शक्ति से बड़ी है.
फिर भी राह आसान नहीं है. मोदी-योगी के व्यक्तिगत आभामंडल के फेर में ना पड़ें. हिन्दू अस्मिता और अस्तित्व की रक्षा का नैरेटिव बनाए रखें. यह लड़ाई उसी मोर्चे से लड़ी जा सकती है.
यही वह समय था 2013 में जब हमने मोदी का नाम खड़ा किया था, मोदी को राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में हमीं खींच कर लाये थे.
मोदी काठ की हाँड़ी निकले यह तो नहीं कहूँगा. पर यह अवश्य कहूँगा कि अभी से हिन्दू संगठन शक्ति को विमर्श का केंद्र बनाएँ… योगी-मोदी को गौण ही रहने दें. हमें लड़ाई लड़नी है… योगी-मोदी को साथ लेकर, योगी-मोदी के बिना या योगी-मोदी के बावजूद…