मेरी नैतिकता की परिभाषा
जब संसार की किसी पुस्तक में
मिल नहीं पाती
या मेरी भावनाएं
उनकी ज्ञात संख्या
की गणना से
बाहर हो जाती है
तो वो नैतिक के पहले
ज्ञात शब्दों का सबसे पहला अक्षर
“अ” का उपसर्ग लगाकर
और भावना के बाद
उनके द्वारा खोजी गयी पहली
“अ”मूल्य संख्या “शून्य” का
प्रत्यय लगाकर
मुझे अपने संसार का होने से ही
खारिज कर देते हैं…
लेकिन वो नहीं जानते
मैं प्रकृति की अंतिम
लाडली, ज़िद्दी और सरचढ़ी
संतान हूँ…
इसलिए उसके किसी नियम को
तोड़ने पर
मुझे सज़ा नहीं मिलती…
बल्कि मेरी हर नई शरारत
प्रकृति में
नए नियम के रूप में
दर्ज हो जाती है…
मेरी इसी आत्ममुग्धता से
प्रकृति का सौन्दर्य और
उसकी प्राकृतिकता बरकरार है…
– माँ जीवन शैफाली
Comments
loading...