ये भीड़ बहुत ज़रूरी है…

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आपने वो नाव वाला झूला देखा है? जो मेलों में चलता है? पेंडुलम की भांति एक तरफ से दूसरी ओर जाता है. जब आप ऊपर जा रहे होते हैं, तब आपको मजा आता है, पर जब आप अचानक नीचे गिरते हैं, तब आपकी चीख निकल जाती है. मुझ जैसे लोग तो, झूले को चलाने वाले को जोर जोर से गालियां बकने लगते हैं.

ज़िंदगी भी आजकल कुछ वैसी ही हो रही है. एक पल में खुशी, और अगले ही पल अत्यंत दुःखद, अत्यंत भयावह. दिमाग काम ही करना बंद कर चुका है इस समय. ज़िंदगी के थपेड़े पर थपेड़े झेल रहे हैं.

एक बहुत ख़ास इन्सान से आज बात हुई. उन्होंने बताया कि वो फेसबुक पर क्यों आये. बात कुछ ऐसी चल निकली कि वो बोल पड़े,

“शुक्ला जी, फेसबुक पर भीड़ एक वरदान की तरह है. वो भीड़ आपको अंदर से नहीं जानती. वो आपके अंतर्मन के संघर्ष को नहीं जानती. बस कर्टसी में ‘वाह वाह’ करती है. लेकिन इस ‘वाह वाह’ की बड़ी कीमत है शुक्ला जी.

लाख बुराइयां हो सोशल मीडिया की, पर कम से कम ये एक बड़ी फायदे की चीज़ है कि कुछ तो वाहवाही मिल रही है आपको. आपको लगता है कि आप भी ‘कुछ हो’. नहीं तो रियल ज़िंदगी ने कुछ इस तरह से ‘ले रखा होता है इंसान की’ कि बन्दा उफ्फ भी नहीं कर सकता.”

ये तो मेरा डायलॉग था, मेरी सोच थी. पहली बार कोई ऐसा बन्दा मिला जो मेरे जैसी सोच रखता था.

“ये भीड़ बहुत ज़रूरी है शुक्ला जी..” उसके ये शब्द मेरे कानों में अभी भी हथौड़े मार रहे हैं. “कहीं तो साला प्रशंसा मिले, कहीं तो ये पता चले कि आप भी कोई अहमियत रखते हैं इस दुनिया में. “भीड़ निष्पक्ष होती है.” उसे आप अच्छे लगे तो ठीक, नहीं तो जिद्दी रिश्तेदारों की तरह जबर्दस्ती कोई रिएक्शन नहीं देती है.”

आज मुझे भी कुछ सीखने को मिला.

हर समस्या का समाधान नहीं हो सकता है. हो सकता भी है तो समाज की नैतिकता के पैमाने पर फिट नहीं बैठेगा.

कन्क्लूज़न ऑफ द स्टोरी यही है कि…. “दिमागदार तथा नैतिक लोग सिर्फ रोने के लिए पैदा होते हैं. बाकियों को देखिये, कभी कोई मानसिक द्वंद्व, कभी कोई मानसिक विचार उनको परेशान नहीं करता.”

“ज्यादा समझदार होने का दावा छोड़ दीजिए. रोते हुए मरते हैं ऐसे लोग.”

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