प्रेम तो एक तरफ़ा ही होता है…
जैसे नदी का जल
जो बहता है एक ही दिशा में
समंदर की ओर मुंह करे
बस दौड़ती चली जाती है
ना उसे चिंता होती है
नदी के घाटों पर पाप धोने आये
लोगों की
ना उन चट्टानों की
जो लांछनों की तरह उसकी लहरों से टकराते हैं
उसके लिए प्रतीक्षा भी कोई मायने नहीं रखती
ना प्रतीक्षा से उपजी पीड़ा
यात्रा ही उसकी नियति है
और समंदर अज्ञात गंतव्य
जिस तक पहुँचने का कोई ध्येय भी नहीं
बस उसे तो जूनून है बहते रहने का…
दो तरफ़ा तो किनारे होते हैं
जो कभी नदी के साथ बह नहीं पाते
नदी के साथ बहने जितना सामर्थ्य होता भी नहीं…
अपेक्षाओं की तरह बस वो नदी से चिपके रहते हैं
पूरी न हो पाने की अपनी पूरी संभावनाओं के साथ…