सबने अलग अलग तरीके से पूछा- हाँ तो? फिर उसके बाद क्या? क्या जान लिया? और क्या जानना चाहती हो? क्या पा लिया और क्या पाने की प्यास बची है?
मैं निरीह सी अपनी उमंगों के पंखों को खुद में समेट लेती हूँ… खुले पंखों का विस्तार गुच्छा बनते ही सिकुड़ने लगता है…
क्यों, कहाँ, कैसे, कब, कितना या बितना का जवाब खोजो पहले उसके बाद जिज्ञासुओं का चोगा पहनो… जितना जान लिया उससे अपने आसमान के कौन से छेद पर पैबंद लगा दिया है इसका हिसाब भी तो देना होगा…
हर बार फटी झोली दिखाकर क्या पाया क्या खोया के कच्चे चिट्ठे से बच नहीं सकती. दुनिया सूक्ष्म प्राप्ति के भी स्थूल प्रमाण मांगती है. और तुम हो कि पाकीज़गी की नई परिभाषा गढ़ने चली हो, तुम्हारे जिस्म पर छोड़े गए निशान तुम्हारी पाकीज़ा रूह पर चाँद पर दाग़ के समान है.
ज़िंदगी के अनुभवों की फाइल में सारे प्रमाण पत्र और NOC लगाकर निकलना दुनिया के बाज़ार में… यहाँ तुम्हारे अनुभव की कीमत तुम्हारे प्रमाणपत्रों की सत्यता से लगाई जाएगी…
माना तुम्हें कुछ पाना नहीं है, तो फिर कभी जिज्ञासु, कभी पिपासु तो कभी मुमुक्षु बनकर हर बार अपनी फटी झोली फैलाकर क्यों खड़ी हो जाती हो..
सुना तो होगा… जिस झोली में सौ छेद हुए उस झोली का फैलाना क्या…
‘इंशा’ जी उठो अब कूच करो इस शहर में जी को लगाना क्या….
कर्मों के और कर्मफलों के तर्कों से बचकर भाग निकलना तो तुम्हें कभी आया नहीं, कभी कुछ ऐसा भी तो कर दिखाओ कि सूक्ष्म प्राप्ति को क्रमवार कर्म की डोरी में पिरोकर एक स्थूल माला बना डालो.
जब जब कोई पूछने आए .. हाँ तो? फिर उसके बाद क्या?
तो वो माला उसके गले में डालते हुए कहना…. तो कुछ नहीं… बस यूं ही… मैं जो कहती हूँ, जो मैं करती हूँ वो मेरे मन की मौज है और आत्मा की पुकार है.. उसके सार्वभौमिक सत्य होने का दावा मैं नहीं करती…. मेरे मन की एक बूँद भी तुम्हारे मन को भिगो जाती है, मेरी आत्मा की पुकार से हल्की सी तरंग भी तुम्हारे कानों तक पहुँच जाती है तो ये माला अगले सवाली के गले में डाल देना… जो तुमसे वही सवाल पूछेगा जो इस ब्रह्माण्ड में अटक कर रह गए हैं… .. हाँ तो? फिर उसके बाद क्या?
कहना.. चलो दिलदार चलो चाँद के पार चलो….
सैकड़ों हजारों में से कोई एक होगा जो सवाल नहीं करेगा और कहेगा…….
…हम है तैयार चलो….