पूजागृह में ध्यान साधना, पूजा अर्चना का सारा काम स्वामी असीमानंद ने सम्भाल लिया था. मुक्तानंद आश्रम के कृत्यों से अब मुक्ति पाना चाहते थे. सांसारिक प्रपंच तो कब का छोड़ दिया था, अब यह नया प्रपंच था. असीमानंद को अब एक सशक्त उत्तराधिकारी के रूप में भी देखा जाने लगा था.
प्रभुजी! तुम चंदन हम पानी…. असीमानंद कहते – ‘‘इस ससांर में कुछ चीजें ऐसी हैं जिनका अकेले का अस्तित्व कुछ नहीं. सूखा चंदन घिसो, बूरा बनेगा. दीपक बिन बाती या बिन तेल नहीं जलेगा. ऐेसे ही प्रकृति भी एक तत्व से पूरी नहीं होती…. जैसे शिव और शक्ति. बल्कि ज्यादा चीजें मिलने से कुछ और ही बनता है, अद्भुत. संकरणता में शक्ति है.’’
इस बार सुकन्या ने चंदन घिसा तो उसमें एक अलग तरह की महक थी. जब फूलों की टोकरी सजाई तो अजीब सी पुलकन हुई.
जब उसकी लम्बी पतली उंगलियों में चंदन की परत चढ़ी तो पता नहीं चला कि कितनी है. चंदन और उंगलियों का रंग एक था. उसका रंग बादाम की तरह नहीं, चंदन की तरह है. चंदन में महक भी होती है. इसे ऐसे पत्थर पर घिसा जाता है जो देखने में मुलायम लगता है. उसका नाम ऐसा होनी चाहिए था जिस का अर्थ चंदन हो या कहीं न कहीं चंदन का भाव हो.
पूजा के समय असीमानंद को फूल अक्षत, धूप दीप प्रस्तुत करती बार सुकन्या के लिए समय ठहर गया. कब पूजा सामग्री जुटाई, कब पूजा आरम्भ हुई, कब खतम भी हो गई, कुछ पता नहीं चला. जब असीमानंद ने दोनों हाथों में दबा कर जोर से शंख फूंका तो मन सहम गया सुकन्या का.
पूजा के बाद असीमानंद ने पूजा के फूल भक्तों की ओर फैंके तो गैंदे का एक बड़ा सा फूल उसकी गोदी में आ गिरा…. अपने आप सीधा गोदी में फूल का गिर जाना शुभ होता है. गोद भरना कितना सुखदायी है.
स्वामीजी के शिथिल हो जाने पर प्रातःकाल और सायं का प्रवचन स्वामी असीमानंद करने लगे. असीमानंद की वाणी स्वामीजी से भी आकर्षक थी… कुछ जादुई सी. लरजती और मरमराती धीमी नदी सी. धीर गम्भीर समुद्र सी. उसके भीतर क्या उथल पुथल हो रही है, इसका अंदाजा लगाना कठिन था.
‘‘वेदव्यास के पुत्र शुकदेव का नाम सुना है… जब उनका जन्म हुआ माता उन्हें छोड़ का स्वर्ग चली गई. वह स्वर्गलोक की अप्सरा थी. शुकदेव को जंगल में शुकों अर्थात् तोतों ने अपने पंखों से छिपा कर रखा. शुकदेव ब्रह्मज्ञानी हो गए.
बचपन में वे बिना कोई वस्त्र धारण किए जा रहे थे तो राह में खड़ी महिलाओं ने उन से कोई संकोच नहीं किया. वे इतने ऊपर उठ चुके थे, अपने पिता से भी आगे. ब्रह्मज्ञानी हो गए थे वे. एक ओर ब्रह्मज्ञानी और दूसरी ओर एक बालक के समान….
हम देख रहे हैं इस क्षेत्र में तो शुक ही शुक है. अभी भी तोतों की आवाज आ रही है. एक ओर तो तोता कामदेव का वाहन है, दूसरी ओर गंधर्व को भी शुक कहते हैं. यक्ष, गन्धर्व और किन्नरों में गंधर्व, गायन में प्रवीण थे. गन्धर्व स्त्रियों पर आसक्त होते हैं तो गन्धर्व ही उनके कौमार्य की रक्षा भी करते हैं. इनमें आसक्ति भी है तो रक्षण का प्रबल भाव भी है.
गन्धर्व कमलदलों पर आसीन रहते हैं. उनकी जंघाओं पर अप्सराएं विराजमान रहती हैं. गन्धर्व चतुर्भजी होते हैं जिनके हाथों में बहुमूल्य हार, जवाहरात और चंवर रहते हैं…. ये आकाश में स्वछन्द उड़ते रहते हैं. ऐसी अनेक बातें, जो विरोधाभासी भी हैं, हमारे पौराणिक ग्रन्थों में विद्यमान हैं. इनके गूढ़ रहस्य हैं.’’
जब असीमानंद बोलते तो मन होता सुनते ही रहे. उनकी जिह्वा में सरस्वती का वास था और वाणी में वीणा की मिठास. बीच बीच में वे कुछ पद गाकर भी सुनाते. आश्रम में कुछ संन्यासी गायन वादन में प्रवीण थे जो प्रवचन के समय बांसुरी धुन, तबला, हारमोनियम या सिंथेराइजर जैसे आधुनिक वाद्य बजाना भी जानते थे.
‘‘सांसों की माला पे सिमरूं मैं पी का नाम’’ स्वामी असीमानंद को बेहद प्रिय था. इसके साथ मंजे हुए गायक कभी ‘‘बुलेशाह असमानी उडदेयां फड़दा, जेहड़ा घर बैठया ओहनू फड़दा ही नई’’ जैसे सूफी गायन में डूब जाते –
‘‘कन्नी मुंदरां पा के मत्थे तिलक लगा के
नी मैं जाणा जोगी दे नाल…..
एह जोगी नर्इं कोई रूप है रब्ब दा
भेस जोगी दा इस नू फबदा
एह जोगी मेरी अखां बिच बसेया
नि मैं इस जोगी हुण होर न जोगी
नि मैं जाणा जोगी दे नाल…….’’
स्वामी इसकी व्याख्या करते हुए खुदा और बंदे, मनुष्य और ईश्वर के आत्मीय प्रेम कोमलकांत भाव में डूब जातेः
‘‘मन्त्र की तरह है यह काव्य, या काव्य ही मन्त्र है. ऐसे सूत्र वाक्य जैसे घड़े में गंगा. जिस तरह मन्त्रों के कई अर्थ खुलते हैं, उसी तरह कविता के, गायन के कई अर्थ खुलते हैं. तभी मन्त्रों की ऋचाओं की कई व्याख्याएं हुईं. अर्थ अभी भी जाने नहीं गए.’’
स्वामी असीमानंद की वाणी बांसुरी धुन के साथ गूंजती
‘‘प्रेम कोई परिंदों से सीखे, गायन गन्धर्वों से सीखे, नृत्य तरंगों से सीखे, जीना कीट पतंगों से सीखे. मनुष्य को सीखने के लिए कहीं नहीं जाना है. इस सृष्टि में आसपास ही बिखरा है सब. पग पग पर अपने आसपास के वातावरण से सीखता है मनुष्य.
एक कीट का जीवन कितना है! वह उसे ही जीता है. एक तितली का जीवन कितना है! वह भी जीती है. एक पत्ता, एक कली, एक फूल. पूरी प्रकृति अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए जीती है. एक फूल जीता है सुगन्ध के लिए, फूल जीता है मानव के लिए, फूल जीता है, दानव के लिए और जीता है भगवान के लिए. ऐसे ही तुम भी जियो. जीवन छोटा है, कोई बात नहीं. तुम जियो दूसरों के लिए.’’
ऐसे प्रवचनों के बाद सुकन्या को सपने में गन्धर्व आते. चतुर्भज गन्धर्व गायन करते हुए. कभी कभी तो दिन में भी लगता, गन्धर्व केले के पेड़ों के बीच से, फूलों की क्यारियों से होता हुआ निकला है, गैरिक धोती, उत्तरीय लपेटे. जिसके गले में बेशकीमती हार है, कानों में सोने के कुण्डल हैं. हाथों में वाद्य ले रखे हैं.
कभी लगता यह गन्धर्व और कोई नहीं, स्वामी असीमानंद है. और वह…. वह एक अप्सरा है. गन्धर्व दो हाथों में गेंदे के बड़े बड़े फूलों के हार लिए और दो हाथों में अक्षय मणियां लिए आश्रम के उपवन में प्रकट हुआ है. कभी लगता गन्धर्व नहीं एक जोगी आंगन में खड़ा है. कीर्तन भवन में कोई गा रहा है – एह जोगी घर आवे मेरे….. एह जोगी.
‘‘मुझे भी संन्यासिन बनाओ. मैं गृहस्थ संन्यासिन नहीं बनूंगी, सच को संन्यासिन बनूंगी. भगवा चोला पहनूंगी.’’ सुकन्या ने विनयपूर्वक कहा असीमानंद से.
कुछ बोले नहीं असीमानंद. एक क्षण भरपूर दृष्टि से देखा सुकन्या की ओर. उनकी दृष्टि जैसे सुकन्या को भेद गई. उसका दिल धक् धक् उठा. माथे पर पसीना आ गया.
‘‘मैं सच कह रही हूं. मजाक नहीं है यह.’’ साहस कर सूखे कण्ठ से बोली.
‘‘स्वामीजी किसी महिला को नहीं मानते आश्रम में….. कोई महिला यहां संन्यासी हो कर नहीं रह सकती.’’ असीमानंद के स्वर में दृढ़ता थी.
‘‘मैं तो बीस बीस घण्टे यहीं रहती हूं. रात को बस सोने जाती हूं घर. कभी तो रात रात भर सोना नहीं हो पाता.’’
दृष्टि झुकाए चुप रहे असीमानंद.
‘‘सच कह रही हूं…..मजाक नहीं है.’’
चेहरा कठोर बनाते तेजी से बाहर निकल गए असीमानंद.
कभी खुल कर मुसकाते नहीं असीमानन्द. कैसे हैं न! यदि मुसकराएं तो कितने मोहक लगे….. बिल्कुल श्रीकृष्ण. जैसे महाभारत सीरियल में आते हैं. सौम्य, भव्य, हर संकट में सदा मुसकाते हुए.
आज दीक्षा का दिन था. क्या पुरुष, क्या महिला; दीक्षा सब को दी जाती थी. दीक्षित हो कर गृहस्थ अपने को स्थायी शिष्य मान कर धन्य हो जाते. दीक्षित हो जाने पर अपने गुरू पर, आश्रम पर उनका अधिकार हो जाता. जब चाहें बेरोकटोक आ जा सकते थे. दीक्षित भक्त को रूद्राक्ष की माला दी जाती जिसे वे हर समय धारण कर सकते थे. यही दीक्षित भक्त की पहचान भी थी.
साधना कक्ष में सब आंखें मूंदे बैठे थे. मौन, शान्त.
स्वामी असीमानंद कर आवाज गूंजी ‘‘शान्त हो जाएं.’’
उन्होंने पूरा सांस पेट में भरने के और धीरे धीरे निकालने के बाद प्राणायाम करने की विधि बताई हालांकि ये विधियां पहले भी कई बार बताई जा चुकी थीं. दीक्षा के समय कोई गलती न हो अतः स्वामीजी बेहद सतर्क थे. दीक्षा से पूर्व प्राणायाम की सब प्रक्रियाओं से निर्विरोध गुजरना आवश्यक है.
प्राणायाम शुद्धि के लिए है… मानसिक शुचिता के लिए. सांस का भीतर आना, बाहर जाना; इसे महसूस करना आदि सब क्रियाएं मनुष्य को सजग बनाती हैं. योग क्रियाएं यदि शारीरिक शुद्धि के लिए है तो प्राणायाम मानसिक शुद्धि के लिए. इससे पहले मन को भीतर तक बिलकुल खाली करना होता है. पूरी तरह समर्पण कर दें. आप एकदम खाली हो जाएं…. भीतर कुछ न रहे. न अच्छा, न बुरा.
जो ध्वनियां आपके कानों में आ रही हैं, उन्हें बेरोकटोक आने दें. पक्षियों का चहचहाना, नदी की सायं सायं, घण्टियों की मधुर ध्वनि; सब आने दें. नासिका से जो गन्ध प्रवेश कर रही है, करने दें. कलियों की महक, फूलों की सुगन्ध. जो अच्छे या बुरे विचार आ रहे हैं, उन्हें भी आने दें. बेरोकटोक आने दें, जाने दें.
सब को सहज स्वीकार करते हुए अपनी आंखें बंद रखें.
एकाएक सन्नाटा छा गया. जैसे जंगल; शान्त और एकान्त…. यह मौन नहीं था.
पल पल बीता. क्षण क्षण गुजरा.
एकाएक माथे के बीचोंबीच अंगूठे का स्पर्श महसूस किया सुकन्या ने. नेह भरा, कोमल स्पर्श. अंगूठा ठीक उसके माथे के बीचोंबीच था, भौंहों के ऊपर. हाथ से बिखरी चंदन जैसी कस्तूरी गन्ध सांसों से उसके शरीर के रोम रोम में समा गई. सारे शरीर में एकदम रोमांच हो उठा. बिजली के करंट सी कोई चीज उसके पूरे शरीर को झकझोर गई. कपाल ले कर ले कर पैर के अंगूठे तक.
जैसे शक्तिपात हुआ. माथे से कोई लहर नस नस में, रोम रोम में समा गई. रोंगटे खड़े हो गए. शरीर, मन और आत्मा तक थरथरा गई. वह पारे सी कांप उठी…. थर थर….थर थर….थर थर.
पता नहीं कितनी देर वह मन्त्रमुग्ध सी, बेसुध, वहां बैठी रही या यूं समझो पड़ी रही.
लग रहा था, उसके सिवा साधना कक्ष में कोई नहीं है. कभी लगता, नहीं तो सभी दीक्षित होने वाले साधक पालथी मार शान्त भाव से यहीं तो बैठे हैं.
आसपास कोई है या वह अकेली ही है, पता नहीं. कितना ही समय बीत गया.
देर बाद बांसुरी की मधुर तान धीमे धीमे सुनाई पड़ी…. यह कोई सपना तो नहीं….!
अंततः स्वामीजी का मधुर स्वर गूंजाः
‘‘सभी अपने को महसूस करें. सभी अपने शरीर में प्रवेश करें…. आसपास की ध्वनियां सुनें, वातावरण को महसूस करें.’’
बांसुरी की धुन अब तेज होने लगी. कई साज बज उठे.
‘‘सभी अपने अपने स्थान पर खड़े हो नृत्य कर सकते हैं. आँखें बंद ही रखें.’’
संगीत की धुन तेज होती गई. लगा, सभी उठ कर नृत्य करने लगे हैं…. धीमे धीमे.
धीरे धीरे संगीत विलीन होता गया. नृत्य भी थम गया. नृत्य के बाद पुनः सभी बैठ गए. कुछ देर बाद स्वर गूंजाः ‘‘चाहें तो जब भी इच्छा हो, धीरे धीरे आंखें खोल सकते हैं.’’
आंखें खोलने को कितनी देर मन नहीं हुआ. मन कर रहा था, बंद ही रहने दें. खोलने पर भी लगा, बंद ही हैं. देर तक वह शिथिल हो वहीं पड़ी रही.
रूद्राक्ष की माला पहने घर गई तो मां को कहाः
‘‘देखो, मां! मैं जोगन बन गई….. अम्मा! मैं सच ही जोगण बन जाणा.’’ मचलती हुई बोली सुकन्या.
‘‘चुप कर. मुई तू पाग्गल! तेरे होणे बस्सणे के दिन हैं… जोग्गण बणणा. तेरा ब्याह करणा अब… तेरे बापू गल्ल पक्की करणे लगे हैं.’’
सर्दियां उतरने लगीं. उधर धौलाधार में पहली बर्फ की परत चढ़ी उधर भक्तों की संख्या घटने लगी. स्वामीजी अब ठण्ड सहन नहीं कर पाते थे अतः नीचे जाने की तैयारियां आरम्भ हो गईं. सुकन्या ने फिर मां से कहा –
‘‘अम्मा! मैंने भी चले जाना स्वामीजी के साथ…… सच्ची, मैंने जोगण बनना.’’
‘‘चुप कर.’’ मां ने डांटा, ‘‘मुई तू जोगण….. औरत भी कब्भी जोगण बनी है! स्वामीजी भी नहीं मानते. अगले महीने तेरा ब्याह है.’’
बिना कोई आहट किए दबे पांव ठण्ड उतरी. नदी में पानी घटा. घाटी गहरी धुंध में डूबने लगी. आश्रम सुनसान हो गया.
चुपचाप ताज़ा ताज़ा बर्फ गिरी है. धौलाधार की चोटियां चांदी सी चमकने लगी हैं. पहाड़ से पशु पक्षी तलहटी में नीचे उतरने लगे हैं.
जब धौलाधार बर्फ से भर गई, तब.
जब बर्फ में चांदनी चमकने लगी, तब. जब चांदनी में साए डरावने लगने लगे, तब.
तब वह उतरता है पहाड़ से. धीरे… धीरे… धीरे…. सफेद कपड़े पहने. लम्बा ऊनी चोला, घुटनों से नीचे तक झूलता. उसकी बांसुरी की मधुर और मादक तान पहाड़ी दर पहाड़ी तैरती है, लहरों की तरह, घाटियों को भरती हुई. जैसे बर्फ गिरती है एकदम चुपचाप, निःशब्द ; जैसे ठण्ड बरसती है बेआवाज. जैसे साज पड़े रहते हैं बेजान… गुणीजन जानते हैं, उन में आवाज छिपी रहती है.
ऐसे में वह भी उतरता है धीरे… धीरे…. धीरे. पहाड़िया कहते हैं उसे. लोग नहीं जानते वह गन्धर्व है जो नवविवाहिताओं को लग जाता है. आसक्त होता है तो उनका रक्षक भी है.
आंगन में बर्फ सुस्ता रही थी. पहाड़ के पीछे उजास फैलते ही देहरे के पास धूप और पानी का लोटा रखा रामसरन ने. पत्नी की गोद में उठाए मेमने पर पानी के छींटे दिए तो वह सिहर कर गोद से छिटका और आंगन में उछलने लगा. पहाड़ की ओर हाथ जोड़ धूप दिखाते हुए गिड़गिड़ाया रामसरन – ‘‘गलती फलती माफ करना…. मेहर रखणा मालका!’’
- सुदर्शन वशिष्ठ