खस यानी वेटीवर (vetiver), यह एक प्रकार की झाड़ीनुमा घास है, जो केरल, तमिलनाडु व अन्य दक्षिण भारतीय प्रांतों में उगाई जाती है.
वेटीवर तमिल शब्द है, दुनिया भर में यह घास अब इसी नाम से जानी जाती है. हालांकि उत्तरी और पश्चिमी भारत में इसके लिए खस शब्द का इस्तेमाल ही होता है. इसे खस-खस, khus, cuscus आदि नामों से भी जाना जाता है.
इस घास की ऊपर की पत्तियों को काट दिया जाता है और नीचे की जड़ से खस के परदे तैयार किए जाते हैं. बताते हैं कि इसके करीब 75 प्रभेद हैं, जिनमें भारत में वेटीवेरिया जाईजेनियोडीज अधिक उगाया जाता है.
भारत में उगनेवाली इस घास की ओर दुनिया का ध्यान 1987 में विश्वबैंक के दो कृषि वैज्ञानिकों के जरिए गया. इसकी काफी रोचक कहानी है.
विश्वबैंक के कृषि वैज्ञानिक रिचर्ड ग्रिमशॉ और जॉन ग्रीनफिल्ड मृदा क्षरण पर रोक के उपाय की तलाश में थे. इसी दौरान उनका भारत में आना हुआ और उन्होंने कर्नाटक के एक गांव में देखा कि वहां के किसान सदियों से मृदा क्षरण पर नियंत्रण के लिए वेटीवर उगाते आए हैं.
उन्होंने किसानों से ही जाना कि इसकी वजह से उनके गांवों में जल संरक्षण भी होता था तथा कुओं को जलस्तर ऊपर बना रहता था. उसके बाद से विश्वबैंक के प्रयासों से दुनिया भर में वेटीवर को पर्यावरण संरक्षण के उपयोगी साधन के रूप में काफी लोकप्रियता मिली है.
हालांकि भारतीय कृषि व पर्यावरण विभागों व इनसे संबद्ध वैज्ञानिकों ने इसमें खासी रुचि नहीं दिखायी. नतीजा यह है कि भारत में लोकप्रियता की बात तो दूर, इस पौधे का चलन कम होने लगा है.
कुछ वर्षों पूर्व भारत में खस की टट्टियां काफी लोकप्रिय थी. लू के थपेड़ों से बचने के लिए दरवाजे और खिड़कियों पर खस के परदे लगाए जाते थे. ये सुख-सुविधा और वैभव की निशानी हुआ करते थे. लेकिन आधुनिकता की अंधी दौड़ और पानी की बढ़ती किल्लत की वजह से खस के परदों का चलन समाप्तप्राय हो ही गया है, अब कूलर में इसकी टट्टियां लगती हैं, जो पानी में भीगकर उसके पंखे की हवा को ठंडा कर देती हैं, जिसे काफी लोग पसंद करते हैं.
वैसे खस का इस्तेमाल सिर्फ ठंडक के लिए ही नहीं होता, आयुर्वेद जैसी परंपरागत चिकित्सा प्रणालियों में औषधि के रूप में भी इसका इस्तेमाल होता है. इसके अलावा इससे तेल बनता है और इत्र जैसी खुशबूदार चीजों में भी इसका उपयोग होता है.
सबसे महत्वपूर्ण बात है कि पर्यावरण के खतरों से निपटने में सक्षम एक बहुउपयोगी पौधे के रूप में आज दुनिया के विभिन्न देशों में इस पौधे के प्रति लोगों की दिलचस्पी काफी बढ़ रही है. मृदा संरक्षण और जल संरक्षण में उपयोगी होने के साथ यह दूषित जल को भी शुद्ध करता है.
जाहिर है कि यदि इसका प्रचार-प्रसार हो तो यह भूमि की उर्वरता और जलस्तर बरकरार रखने के लिए किसानों के हाथ में एक सस्ता साधन साबित हो सकता है. इससे कई हस्तशिल्प उत्पाद भी तैयार होते हैं और यह ग्रामीण लोगों के जीवन स्तर में सुधार का माध्यम बन सकता है.