इस मुद्दे को समझने के लिए पहले एक और वैचारिक लड़ाई की बात करते हैं.
हल्दी के पेटेंट की लड़ाई जब डॉ माशेलकर जीते थे तो उसका वर्णन कई लोगों ने ‘हल्दीघाटी की लड़ाई’ कह-लिख कर किया था.
यह तुलना सही थी या नहीं, यह इस लेख का विषय नहीं है, बात उस लड़ाई के महत्व की थी.
हल्दी पर एक विदेशी कंपनी अपना वैचारिक स्वामित्व जता रही थी क्योंकि उसे बाद में स्वामित्व का हक जताकर पैसे भी कमाने थे. हल्दी का कुछ भी प्रयोग करने के पहले उनको रॉयल्टी चुकाने की बात आ जाती.
अपने यहाँ इस मामले में बातें बहुत लचर रही हैं… इसलिए यह क्या हो सकता है इसका यहाँ अंदाजा नहीं है. बताने जाएँ तो हंसी उड़ाई जायेगी, कि भला ऐसे भी कहीं होता है?
लेकिन कुछ ही सालों में ऐसी बातों का यहाँ भी असर दिखाई देगा, IPR (Intellectual property right – बौद्धिक संपदा अधिकार) यहाँ भी बड़ा व्यवसाय होता जा रहा है. कंपनी सरकार की वापसी कह सकते हैं, इस पर अलग से लिखेंगे, बड़ा विषय है.
मुद्दा यह है कि कोई बात जो आप की ही रही है, लेकिन आप ने यह कभी पंजीकृत नहीं किया क्योंकि आप को जरुरत नहीं लगी.
पंजीकरण न करने का कारण यह भी होता है कि वकील को फीस देनी पड़ेगी और हर साल खामख्वाह का खर्चा करते रहना पडेगा.
लेकिन अब कानून में संशोधन हुआ कि जिसके नाम में पंजीकरण वो मालिक, तो किसी ने अपने नाम में पट्टा लिखवा लिया और आप को बेदखल करने आ गया.
आप को सालों से जानने वाले कानून के रखवाले भी उसका साथ देने को मजबूर होंगे क्योंकि कानूनी प्रक्रिया उसने पूरी की है. अब अगर आप को उस बात का इस्तेमाल करना है तो उसको कीमत चुकाकर करना पडेगा.
लेकिन आज भी बहुसंख्य भारतीयों को डॉ माशेलकर की लड़ाई का अंदाजा नहीं है, उनकी जीत का महत्व पता नहीं है.
कुछ ऐसी ही बात भगत सिंह की है. कम्युनिस्टों को क्यों इतना इंटरेस्ट है उनमें?
जिस व्यक्ति की उनके पूर्व पदाधिकारी लिखित रूप से निंदा कर चुके हैं उसे आज लेनिन के भक्त और कॉमरेड साबित करने का औचित्य क्या है?
क्योंकि भगतसिंह में कोई दाग नहीं है, और आज कम्युनिस्टों के जितने भी आइकॉन थे उनके मुखौटे तार तार हो चुके हैं.
इसलिए भारत के लिए एक लोकल बेदाग़ नायक की उन्हें ज़रुरत है, तो ज़ाहिर है वे भगत सिंह को लाल रंग चढ़ाने की पूरी कोशिश करेंगे.
राष्ट्रवादियों को अंदाज़ नहीं है कि यह लड़ाई क्या है और इसके परिणाम कितने गहरे होंगे आप की आनेवाली पीढ़ियों पर. ये बड़ी लड़ाई है. कमर कस लीजिए.
इससे अधिक अभी लिखने का औचित्य नहीं. बाकी सरकार या भाजपा इसमें न कुछ करेगी और न कुछ कर सकती है.
इसकी अलग और कारगर रणनीति हो सकती है, और रणनीति सार्वजनिक चर्चा का नहीं, मंत्रणा का विषय है.
बात समझ आई है तो इसे शेयर अवश्य कीजिये, हो सकता है कुछ लोग व्यक्तिगत स्वार्थ या लाभ से ऊपर उठाकर राष्ट्र के लिए कुछ करने को उद्यत हो जाएँ.