प्रार्थना के पीछे पहले आत्मा गयी
फिर देह
दोनों ने इच्छाओं के आकाश तक अपने हाथ बढ़ाये
और संयुक्त रूप से एक नाम वहाँ टांक दिया.
देह की दृष्टि बार-बार आकाश को देखती.
वहाँ अपना नाम देखती और आश्वस्ति से भर उठती
आत्मा कहीं न जाती
रोज एक अंध-कूप खोदती
भर देती उसे तमाम व्याकुल प्रश्नों से.
देह और आत्मा दोनों को चाहिए था एक ईश्वर
जो एक निशान लगाता, आकाश पर लगातार जल रही एक प्रार्थना पर
प्रतीक्षा-सूची से घटा देता एक नाम
प्रश्नों के भरे एक पतीले को वही पलटा सकता था!
एक वही था
जो एक मौसम की तरह पृथ्वी पर गिरता.
एक वही था, जिसे हर प्रार्थना मोक्ष की तरह तलाशती.
बहुत बार वह मिलता था देह और आत्मा के एक अनुपातिक संतुलन में
देह और उसकी प्रार्थना,
ईश्वर के हो सकने पर दोनों ही शंकालु थे.
आत्मा अंधकूप में रोती कि देह ने अपवित्र किया है प्रार्थना को
वह सोचती थी और प्रश्नों से कूप भरती थी.
आत्मा ईश्वर की परछाई को एकदम साफ देखती थी
अपना पांव बढ़ाती थी उस तक
देह पीछे छूटती थी.
शंकाओं का भार सिर्फ देह उठाती थी.