किसी व्यक्ति के मृत्यु के उपरांत उसकी विचारधारा को लेकर जलील करने का सबसे अधिक काम अगर किसी ने किया है तो वो कम्युनिस्ट हैं.
भगत सिंह जैसे हुतात्मा को कम्युनिस्ट घोषित कर दिया गया. उद्देश्य था कि इस हुतात्मा के सु-नाम का फायदा उठाते हुए देश के युवा वर्ग को भ्रमित किया जा सके और उन्हें कम्युनिज्म की तरफ खींचा जा सके.
क्या कम्युनिस्टों के मन में हमेशा से भगत सिंह के प्रति आदर था या अपने राजनीतिक फायदे के लिए उन्होंने उगला हुआ थूक निगल लिया?
सच क्या है, इसकी तहकीक ज़रूरी है क्योंकि त्रिपुरा के ‘लेनिन काण्ड’ के बाद आज भगत को आगे कर वो लोग हमदर्दी बटोरने की कोशिश करने में लगे हैं.
भगत सिंह के प्रति कम्युनिस्टों के मन में कितना ‘आदर-भाव’ है ये जानने के लिये आवश्यक है कुछ कम्युनिस्टों की किताबों को पढ़ा जाए और भगत सिंह के संबंध में कुछ कम्युनिस्ट नेताओं की स्वीकारोक्तियों को सुना जाए.
भगत के प्रति कम्युनिस्टों की ‘वामश्रद्धा’ देखनी है तो एक वरिष्ठ पूर्व कम्युनिस्ट नेता सत्येन्द्र नारायण मजूमदार की 1979 में पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘इन सर्च ऑफ़ ए रिवोल्यूशनरी आइडियोलॉजी’ को पढ़ना पर्याप्त ही काफी है.
इस किताब में उन्होंने भगत सिंह की निंदा करते हुये उन्हें मूर्ख, अति उत्साही, भावुक और रोमांटिक क्रांतिकारी बताते हुए कहा है कि जिसे सामूहिकता के साथ काम करने नहीं आता था.
एक और कामरेड थे अजय घोष, जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में 1951 से 1962 तक महामंत्री रहे थे और दावा करते थे भगत सिंह के साथ उनका संबंध 1923 में ही आ गया था.
इस महानुभाव ने भी ‘भगतसिंह और उनके कामरेड’ शीर्षक से लिखे एक लेख में स्पष्ट कहा था कि भगत सिंह सच्चे अर्थों में मार्क्सवादी थे ही नहीं क्योंकि केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंककर बिना किसी प्रतिरोध के स्वयं को गिरफ्तार कराने और फांसी पर चढ़ने के उनका निर्णय व्यक्तिगत था, जिसे कम्युनिस्ट पार्टी व्यक्तिगत हिमाकत मानती है.
भगत सिंह के प्रति ममत्व जगने के वजह ये थी कि जिन लेनिन, स्टालिन, माओ-चाओ, पोल पोट वगैरह को वो यूथ-आइकॉन बना कर बेचते थे, उनके काले कारनामे और उनके नीतियों की विफलता दुनिया के सामने आने लगी थे.
स्वभाव से राष्ट्रप्रेमी भारतीय युवा मानस के बीच उनको मार्क्सवादी आइकॉन के रूप में बेचना संभव नहीं रह गया था इसलिए इन्होने भगत सिंह को कम्युनिस्ट बना कर हाईजैक कर लिया.
प्रमाण के लिए फांसी पूर्व भगत सिंह द्वारा लिखे गये लेख ‘मैं नास्तिक क्यों बना’ को आधार बना लिया, जबकि इस किताब का भगत सिंह के कम्युनिस्ट होने से रत्ती भर भी संबंध नहीं था.
इन मायावियों और प्रपंचियों के आँसू में कहीं भगत को लेकर इस दुष्प्रचार का शिकार न हो जाना कि वो वामपंथी थे.