मैं एक विलुप्त होती प्रजाति हूँ…

मैं एक विलुप्त होती प्रजाति हूँ
जिसके संरक्षण के लिए
आवश्यक है कि
बचा रहे इस धरती पर
थोड़ा सा प्रेम और धैर्य

थोड़ा सा दीवानापन
बचा रहे दीवानों में
आवारगी आवारों में

कुछ रास्तें
भटकने के लिए बने रहें
बनी रहे कुछ मंजिलों
पर पहुँचने की खुशी

मंदिरों में
भले पूजा न बचे
हृदय में खिला रहे फूल आस्था का

गृहणी की रसोई में
स्वाद न बचे ना सही
दुपट्टे में बची रहे
गृहस्थी की सुगंध
नाखूनों पर रंगीनियाँ न हो भले
फंसा रहे आटा

आँखों में सम्मान न बचे
कनखियों में
बची रहे चंचलता
और होठों पर बस पुकार जमी रहे
‘अजी सुनती हो’ की…

नुक्कड़ पर खेलते मिले
बच्चे कंचे और गुल्ली,
किशोरियां बची रहे बालकनी में
कपड़े सुखाने के बहाने
और किशोर साइकिल पर
चेन चढ़ाने के लिए

मॉल में पिज्ज़ा खाते हुए
बाहर देखो
तो मिल जाए
ठेले पर सब्ज़ी बेचता रामलाल
और बाहर से शो रूम में झांकते
किसी गरीब के बच्चे की आँखों में
बड़ा आदमी बनने का सपना

साधु बचे ना चाहे
नदियों के घाट
और पर्वतों की कंदराओं में
लेकिन शिष्य बचे रहे
गुरु की प्रतीक्षा में

दूध ना उतरे भले
आधुनिक माँओं की छाती में
ममता बची रहे
दादी नानी की लोरियों में

अंतरिक्ष में नहीं बचे ग्रह
अपने अपने कक्ष में
प्रेमी की आँखों में
प्रतीक्षा बची रहे

सृष्टि बचे न बचे
मुझे नहीं पड़ेगा फर्क
तुम बचे रहे मेरे हृदय में
तो मैं खुद को विलुप्त होने से
बचा ले जाऊंगी

– माँ जीवन शैफाली

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