विवाह के एक वर्ष के पश्चात जब ये समय मेरे जीवन में आया तो मेरे पास प्रतिक्रिया देने के लिये शब्द तो दूर भावों की भी बहुत कमी थी. लगा जैसे मैं स्वयं ब्रह्मा हो गयी हूँ, सृष्टि रचूंगी अब!
लगा विष्णु भी मैं ही हूँ, मेरा बच्चा मेरे शरीर से पलेगा! मैं गर्व से सराबोर थी. ईश्वर से कहती,”देखो मैं तो आप सी हो गयी हूँ. बस अपने बच्चे का लिंग निर्धारण नहीं कर सकती अन्यथा अपनी प्रथम संतान के रूप में बेटी स्वयं निर्मित कर लेती. आप कर सकते हो तो मुझे बेटी देना pleeeeeeeeezzzzz”
इन्हीं सब चिंताओं और मनःस्थिति के बीच मेरा गर्भकाल आगे बढ़ रहा था.
प्रथम बार एक महिला किन किन चिंताओं से गुजरती है मांएं जानती ही होंगी. संभवतः पिता भी अवश्य जानते होंगे. बच्चा स्वस्थ हो, हाथ, पैर, नाक कान आदि ठीक ठाक हों जैसे विचार तो पीछा छोड़ते ही नहीं.
ऊपर से मेरे सारे शरीर में खुजली की समस्या…. मुझे स्वयं पर तो लज्जा आती ही, ये भी लगता कि अंदर बच्चे को कुछ होगा तो नहीं…
और प्रथम गर्भधारण में मेरा तो पेट भी बाकी महिलाओं की तरह बहुत बड़ा नहीं हुआ.
मैं हर समय चिंता में रहती, डॉ की जान खाती “डॉ mam, अंदर बढ़ तो रहा है ना बच्चा?” डॉ मुस्कुरा कर कहतीं निश्चिंत रहो! कान्हा सब ठीक करेंगे.
ऐसी मनोदशा में मैं जब टेम्पो, रिक्शा आदि में यात्रा करती तो मुलायम सिंह यादव के दौर की सड़कें मेरे आगे किसी पूतना से कम नहीं होतीं. मैं डरते डरते रिक्शा, टेम्पो में बैठती तो चालक से विनती करती कि “भईया धीरे चलाना”
और आपको एक बात मैं दावे से कह सकती हूँ कि सड़क पर चलने वाले लगभग सभी पुरुष एक गर्भवती स्त्री का भाई होने का दायित्व स्वतः निभाते हैं. टेम्पो स्टैंड पर अपने नंबर के लिए हड़बड़ी में रहने वाले, लाठी डंडों तक तुरंत उतरने वाले लड़ाके टेम्पो चालक मुझे देखते ही मेरे अभिभावक की भूमिका में आ जाते और मुलायम काल की सड़क का हर गड्ढा बचाने का प्रयास करते.
यदि असफल हो भी जाते तो सहचालक चिल्लाता “$%%के!पीछे का ध्यान रख!धीरे चला बे!” मैं हँस देती! सोचती कि यदि मैं ब्रह्मा और विष्णु हूँ तो ये कौन से भोले भंडारी से कम हैं!
जब उतरने की बारी आती तो सहचालक ध्यान से मुझे उतारते, मेरी तरफ निश्छल मुस्कान देते. और मैंने यही टेम्पो चालक और सहचालक लड़कियों को छेड़ते और उनकी हँसी भी करते देखे हैं. यही तो सम्बन्ध है पुरुष और स्त्री के बीच! जैसे ही स्त्री सुरक्षा माँगती है पुरुष सुरक्षा प्रहरी बनने में देर नहीं करते. पर स्त्री बराबरी मांगे तो उनका अहम घायल होता है.
इस तरह तमाम सुखद अनुभवों के साथ वह समय आया जब मैं माँ बनी और ईश्वर मेरे स्वयं को ईश्वर समझने के गर्वोन्मत व्यवहार से क्रोधित नहीं हुआ और मुझे उसने बेटी दी!
बिटिया लगभग सात महीने की थी तब मैंने नौकरी के लिये आवेदन किया था, मूल निवास प्रमाण पत्र कचहरी परिसर में बनना था, पहली बार पूरा दिन मैं बेटी को ले के घर से बाहर थी.
दिन में कई बार दूध पिलाना था. कचहरी में वकील, अपराधी और पुलिस वाले… सभी के बारे में हम पूर्वाग्रह से ग्रसित होते हैं पर मजाल थी कि किसी ने मुझे दूध पिलाते देखने में कोई रुचि दिखाई हो! बल्कि एक वकील साहब ने मुझे अपने छोटे से बस्ते में बैठने के लिए कहा और बोले “सिर्फ एक माँ ही अपने बच्चे का ऐसा ध्यान रख सकती है” मैं आपकी जगह होता तो बच्चे की जगह खुद रो रहा होता.
ऐसे पुरुष क्या प्रताड़ना के योग्य हैं ?
माँ बनने का प्रथम चरण संभवतः वासना ही है परंतु एक महिला जब माँ बनती है तो वह वासना से मुक्त हो जाती है, स्तनपान हो या बच्चे को संभालने में असावधानी वश अस्त व्यस्त होना, माँ के दिल और दिमाग में वासना या अन्य पुरुष हो ही नहीं सकता और यही माँ होने की सफलता है. और जब तक एक शिशु के पालन पोषण की अवधि में माँ वासना मुक्त रहती है, कोई सामान्य पुरुष उस पर दृष्टिपात नहीं करता.
और यदि एक माँ अपने शिशु के पालन पोषण के समय वासना मुक्त नहीं है और उसे अन्य पुरुषों के घूरने का खयाल आ रहा है तो उसे गुप्त रोग वाले हकीम जी से मिल लेना चाहिये.
– ज्योति अवस्थी