दुआ न सही, क्या कोई इनका शुक्रिया भी अदा करेगा?

एक मित्र ने कल सीरिया में लंगर चला रहे सिखों की फोटो फेसबुक पर डालकर पूछा कि क्या कोई उम्मती इन सिखों के लिये दुआ करेगा? दुआ न सही क्या कोई इनका शुक्रिया भी अदा करेगा?

सब जानते हैं कि इसका जवाब ‘न’ में है. जवाब ‘न’ में होने की वजह भी है.

वजह है इन सबको बचपन से मिली मूल तालीम जो इनको सिखाती है कि कोई चोर है, बलात्कारी है, किसी का हक़ मारने वाला है पर अगर ईमान वाला है तो वो जन्नती है (अबूज़र से रिवायत हदीस, बुखारी शरीफ़ में).

और इसके उलट अगर कोई लाख नेक है, सालेह है, उसके सीने से दया और करुणा की गंगा बहती है, दान-पुण्य करता है, अनाथों और मोहताजों को पालता है यहाँ तक कि मुसलमानों का भी भला करने वाला है पर अगर वो ईमान वाला नहीं है तो जहन्नमी है.

… और इसलिये न तो उसके लिये दुआ की जा सकती है और न ही उसका शुक्रिया अता किया जा सकता है.

इतिहास में इसके उदाहरण खोजने जायेंगे तो एक नहीं कई मिलेंगे.

पहला उदाहरण तो खुद नबी के चचा अबू तालिब का है. ये वो शख्स थे जिन्होंने रसूल साहब की बचपन से परवरिश की थी.

जब सारा मक्का रसूल साहब के जान के पीछे पड़ा तो वो अबू तालिब थे जो मजबूती से उनके साथ खड़े थे पर जब उनका आखिरी वक़्त करीब आया तो रसूल साहब ने उनसे कहा कि चचा! अगर आप एक बार कलमा पढ़कर मेरे रसूल होने और अल्लाह के एक होने की गवाही दे दें तो हश्र के रोज़ मैं आपकी शफआत कराऊँगा.

अबू तालिब ने इंकार कर दिया.

इसलिये पूरी उम्मते-मुस्लिमा इस बात पर एकमत है कि क़यामत के दिन अबू तालिब को उनके इंकार की सज़ा मिलेगी और उनको आग का जूता पहनाया जायेगा.

एक दूसरा उदाहरण अब्दुल्लाह बिन उरियत हैं. ये वो गैर-मुस्लिम शख्स थे जिन्होंने हिजरत के दौरान रसूल को रेगिस्तान में मदीने का रास्ता दिखाया था जबकि रसूल का पता बताने वालों के लिये कुरैश ने एक सौ ऊँटों का ईनाम रखा हुआ था.

मगर इनकी परिभाषा में अब्दुल्ला बिन उरियत भी जहन्नम में ही आरामफरमा हैं.

वैसे ये एक-दो उदाहरण ही नहीं हैं, केवल उस दौर की ही बात करें तो ऐसे उदाहरण अनगिनत हैं. एक दो सांझा करना आवश्यक है.

1. इमाम तबरानी की किताब अल-अशरा में है, हजरत साद बिन मालिक फरमाते हैं कि सूरह लुकमान की 14वीं व 15वीं आयत मेरे बारे में है, मैं अपनी माँ की बहुत खिदमत किया करता था तथा उनका पूरा आज्ञाकारी था.

जब मैंने इस्लाम कबूल कर लिया तो मेरी माँ मुझपर बहुत बिगड़ी और कहा बेटा! ये नया दीन तू कहाँ से निकाल लाया? सुनो मैं हुक्म देती हूँ कि इस दीन से अलग हो जाओ वरना मैं भूखी रहकर मर जाऊँगी.

मैंने इस्लाम को न छोड़ा तो मेरी माँ ने खाना पीना छोड़ दिया। फिर हर तरफ से मुझपर लोगों के ताने बरसने लगे कि तू अपनी माँ को मारना चाहता है?

मैंने अपनी माँ को बहुत समझाया कि अपनी ज़िद छोड़ दो क्योंकि मैं किसी भी हालत में खुदा के इस दीन को नहीं छोड़ सकता. इसी कश्मकश में मेरी वालिदा पर तीन दिन का फ़ाका गुजर गया और उसकी हालत बहुत ही ज्यादा खराब हो गई।

मैं अपनी माँ के पास गया और उनसे कहा- सुनो माँ! तुम मुझे बहुत ज्यादा प्यारी हो पर अपने दीन से ज्यादा नहीं. वल्लाह तुम्हारी अगर एक नहीं वरन् 100 जानें हों तथा इसी तरह भूख-प्यास से एक-2 कर के सब निकल जाए तो भी मैं आखिरी लम्हे तक सच्चे दिन इस्लाम को हरगिज-2 न छोड़ूँगा। तब मेरी माँ ने मायूस होकर खाना-पीना शुरु कर दिया.

2. हजरत सईद बिन अब्दुल अजीज फरमाते हैं कि सूरह मुजादला की आयत 22 हजरत अबू उबैदा आमिर बिन अब्दुल्लाह जर्राह के बारे में उतरी है. जंगे-बद्र में उसके पिता काफिरों की तरफ से थे और उसने अपने हाथों से अपने पिता का कत्ल कर दिया.

3. सीरत इब्ने-इस्हाक में है कि अब्दुल्ला नाम के एक मुसलमान थे. एक बार उन्होंने रसूल से आकर पूछा ‘या रसूलल्लाह! मैंने सुना है कि मेरे बाप ने आपके बारे में एक बकवास की है जिसके चलते आप उसका कत्ल करना चाहते हैं?

अगर ऐसा ही है तो आप उसके कत्ल का हुक्म मुझे ही दीजिये, मैं खुद जाता हूँ और उसका सर आपके कदमों पर लाकर रखता हूँ.

मेरा पूरा कबीला जानता है कि मुझसे ज्यादा मेरे बाप का खिदमतगार कोई नहीं है इसलिये अगर आपने किसी और को मेरे बाप के कत्ल का हुक्म दिया तो हो सकता है गुस्से में कहीं मैं उसका कत्ल न कर दूँ.

और अगर यह गुनाह मुझसे हो गया, फिर तो मैं जहन्नमी हो जाऊँगा क्योंकि एक काफिर (मेरा बाप) के कत्ल बदले मुझसे एक मुसलमान का कत्ल हो जाएगा.

इसके अलावा और भी उदाहरण हैं मसलन हजरत अबूबक्र ने कुफ्र में शामिल अपने बेटे अब्दुर्ररहमान के कत्ल का इरादा किया था, हजरत मुस्अब बिन उमैर ने अपने काफिर भाई उबैद बिन उमर का कत्ल किया.

हजरत उमर, हम्जा, अली व उबैदा बिन हारिस ने जंग में अपनी करीबी रिश्तेदारों उतबा, शैबा, बलीद आदि का कत्ल किया.

इसलिये इनसे कोई उम्मीद और अपेक्षायें बेकार हैं. सीरिया में लंगर चला रहे उस नेक सरदार को जन्नत जाने का आश्वासन तो दूर एक अदद शाबाशी तक नहीं मिलेगी.

श्री आनंद राजाध्यक्ष के शब्दों में रोबोट जैसे प्रोग्राम्ड लोगों से कुछ बदलाव की कल्पना ही बेकार है क्योंकि इनकी हद वहीं तक मुकर्रर है जहाँ तक जाने की प्रोग्रामिंग इनके अंदर की गयी है.

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