स्वर्ग क्या खाकर बराबरी करेगा नरक से. स्वर्ग में मिलना है सात्विक फलाहार और सैंधा नमक वाली साबूदाने की खिचड़ी. अब रोज रोज यही खाने को मिले तो मरने के बाद फिर मरने का मन होने लगेगा.
पकौड़ों का जुगाड़ तो तेल के उबलते कड़ाहे वाले नरक में ही हो सकता है. और जहाँ पकौड़े होगें शराब की नदियाँ वहीं तो बहेंगी.
और फिर स्वर्ग में हमेशा सच बोलने की पाबंदी. सुना है वहाँ इधर की बात उधर करने की कोई गुंजाइश होती नहीं है. जहाँ हम किसी के कान ना भर पाएं, किसी की टाँग ना खींच पायें, ऐसी जगह रहने का क्या मतलब.
हमारे फेफड़े ऐसे साफ सुथरे माहौल में काम कैसे कर पायेगें. दम ही घुट जाना है ऐसे स्वर्ग में, और यह भी तय है कि सारे अफसर दोस्त नरक में ही मौजूद होगे. बिना दोस्तो के उबाऊ स्वर्ग का करेंगे क्या. तो नरक भला और हम भले.
स्वर्ग में भला होगा क्या. होंगे सब भले भले लोग. श्वेत वस्त्रधारी. कंठी माला पहने, कल्पवृक्षों के नीचे, समाधि लगाये राम नाम जपते वैष्णव जन. चेहरे पर सदा निर्मल मुस्कुराहटें लिये फिरते सच्चे लोग.
ऐसे माहौल में कोई चार छह दिन भले बिता दे पर वहाँ बरसों बरस रहना. यह तो आजीवन कारावास सी कालेपानी की सज़ा हुई.
इसकी तुलना नरक से करके देखिये. सारे ही नाते रिश्तेदारों, साथ के सभी डॉक्टर, इंजीनियर, वकीलो और अड़ोसियों-पड़ोसियों के वहाँ मिलने की ग्यारंटी है.
और फिर हमारे सारे मीडिया वाले, हमारे नेता, नौकरशाह और तमाम फिल्मी लोग भी तो वही होते हैं. इन्हें धरती से ले जाने वाली फ्लाईट नॉन स्टाप नरक में लैंड करती है.
इनके बिना जीना भी कोई जीना है. ये तो पॉवर हाऊस हैं जिंदगी के. इनके होते सारी रौनकें नरक के हिस्से की चीज़ें है. इनके बिना तो स्वर्ग लालटेन वाले देहात जैसा ही होगा. कौन जायेगा वहाँ.
और जो ये कहते हैं ना कि स्वर्ग में अप्सरायें रहती है ये बात भी मानने लायक नहीं लगती मुझे. मुझे पक्का भरोसा है कि रँभा, मेनका जैसी अप्सराएं नरक की नागरिकता ले चुकी होगीं अब तक.
स्वर्ग में भला इनकी क्या कदर. इनके चाहने वाले, सारे ही गुणग्राहक तो नरक में मौजूद हैं. ऐसे में ये अप्सराएं स्वर्ग में रहेंगी ही क्यों.
सोचिये ये अप्सराएं किसी की तरफ़ तिरछी नजर से देख मुस्कुरा रही हों और सामने वाला राम-राम बहनजी कह कर उनका दिल तोड़ जाये. ऐसे में मुझे नहीं लगता कि मेनका, रंभा, तिलोत्तमा जैसी अभिसारिकाएं स्वर्ग में रहकर अपना टाईम खोटा करेंगी.
स्वर्ग की सोचता हूँ तो मुझे वृंदावन के विधवा आश्रमों में भजन करती बेसहारा सफेद साड़ी में लिपटी, घुटे सर वाली बूढी औरतें याद आती हैं जो दो जून की रोटी के लिये सुबह शाम भजन करती हैं.
और नरक. यह तो तय है नरक होगा तो वो अमरीश पुरी के तड़क-भड़क वाले अड्डे सा रंगीन होगा. और सच बताऊं तो अमरीश पुरी मुझे बेहद पसंद है.