यह मेरी सबसे पहली आध्यात्मिक कविता है
जो देह से प्रारम्भ होकर
देह पर ही समाप्त हो जाती है
यहाँ आत्मा और परमात्मा जैसी
सूक्ष्म बातों का समावेश नहीं है
क्योंकि मेरे विराट देह का हर रोम कूप
आकाशगंगा के असंख्य तारों को
गुरुत्वाकर्षण बल से
अपनी ओर आकर्षित करता है
मेरी आँखों के चन्द्रमा और सूरज
हर रात अपनी पलायन गति
को पा लेते हैं
और चमकते हैं वहां, जहाँ मैं चाहती हूँ चमके
मेरे होंठों पर प्रेम के लिए उकेरा गया
स्थायी आमंत्रण सूत्र
किसी पुरातत्ववेत्ता की प्रतीक्षा नहीं करता
कि वो अपने अस्त्रों से खुरचकर
उसके पुरानेपन को लिपिबद्ध करे
क्योंकि मैं रोज़ नई हूँ
मेरे हर चुम्बन का स्वाद भिन्न है
मेरी भुजाओं का पहला और अंतिम आलिंगन
जीवन और मृत्यु के लिए जन्मों से संरक्षित है
क्योंकि मैं मध्यम मार्गी नहीं
मेरा हर कार्य अति पर जाकर रीतता है
मेरी नाभि पर टिका है
स्पर्श का पहला कमल
जिस पर अपने कान धर
कोई भी सीख सकता है
अहम् ब्रह्मास्मि का सूत्र
मेरे वक्षों पर अपना मुंह टिकाये
लौटा जा सकता है उन पलों में
जहाँ शैशवावस्था जन्म का पहला नहीं
अंतिम पड़ाव है
क्योंकि वहीं पर समाप्त होती है
मेरे देह की यात्रा
और प्रारम्भ होती है
तुम्हारी चेतना की आध्यात्मिक यात्रा
– माँ जीवन शैफाली