महाभारत और प्रेम – 2

इसकी प्रबल संभावना है कि महाभारत और प्रेम के एक ही वाक्य में जिक्र से भावनाएं आहत हो जाएँ. टेलीविज़न से महाभारत सीखकर ज्यादातर लोग इसे एक धार्मिक ग्रन्थ के तौर पर देखते हैं, वहीँ कुछ ने इसे वीर रस वाले हिस्सों में देखा.

धर्म या फिर शौर्य का प्रेम से क्या लेना देना? ऐसा सोचने वाले हा हुसैनी परम्परा के हिन्दुओं की गिनती भारत में मुग़ल काल से लगातार बढ़ती ही रही है. आश्चर्यजनक रूप से हिन्दुओं में ‘हराम’ यानि जिस पर सख्त मजहबी पाबन्दी हो, ऐसा कुछ नहीं होता. अति प्रेम की हो या घृणा की, सत्य की हो या झूठ की, बहुत ज्यादा हो जाने पर पाबन्दी लगाई जाती है.

स्वविवेक से जबतक मर्यादा में है, तब तक सभी भाव अच्छे हैं, थोड़ी बहुत गलतियाँ भी उचित प्रायश्चित पर क्षम्य होती हैं. आपकी आयु, लिंग, रुचियों पर निर्भर है कि इस महाकाव्य में आपको क्या दिखेगा. पाठक को अपने हिसाब से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों में से ना चुनने देने में थोपी हुई धर्मनिरपेक्षता का तो भला होता ही है, कई बार ये उन धार्मिकों का भी फायदा करते हैं जिनके लिए आदिशंकराचार्य कह गए हैं:

जटिलो मुण्डी लुञ्चित केशः काषायाम्बर-बहुकृतवेषः.
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः उदरनिमित्तं बहुकृत शोकः॥

किसी ने सर मुंडा रखा है, किसी ने बाल बढ़ा लिए हैं, किसी ने हरे-काले कपड़े पहनकर, तो किसी ने उतारकर, विचित्र भेष और नाच का स्वांग रचा रखा है! उद्देश्य सबका एक ही है, आपको खुद ज्ञान प्राप्त करने ना देकर, किसी तरह ठगकर अपनी झोली भरना.

यहाँ पुराने दौर के हिन्दू साहित्यकारों ने कुछ अच्छा काम किया. उन्होंने महाकाव्यों से एक एक एक कहानी उठाकर उस पर ही पूरा पूरा ग्रन्थ रच डाला. इन बाद में रचे ग्रंथों में अतिशयोक्ति नहीं थी ऐसा नहीं, मिथ्या नहीं या कल्पना ना जोड़ी गई हो ऐसा भी नहीं, लेकिन ये दुर्भावना से मुक्त थी.

जैसे नियत बुरी सिद्ध ना होने पर हत्यारे को भी कोई सजा नहीं दी जाती वैसे ही इन्हें बुरा नहीं कहा जा सकता. बाद में ऐसे मजहबों का भारत में प्रवेश हुआ जो अपने अलावा दूसरे सभी को नीचा घोषित करते थे. अपने एकमात्र सत्य को स्थापित करने के लिए तोड़ मरोड़ इसी दौर में शुरू हुई.

अपनी सुविधा से किस्से के एक हिस्से को उठाकर उसे विद्रूप रूपक के तौर पर स्थापित करने में जो तथाकथित धर्मनिरपेक्षों को महारत हासिल थी, उसका भी इस प्रक्रिया में भरपूर लाभ लिया गया. ऐसे में कुछेक को छोड़ दें तो महाभारत की प्रेम कथाएँ लगभग गायब ही हो गईं.

महाभारत की प्रेम कथाओं पर चुप्पी साधने का एक नतीजा ये भी हुआ कि नाम तो सुने हुए रह गए, मगर इस नाम से कहानी कौन सी जुड़ी थी उसे याद करना भी मुश्किल होने लगा. महाभारत की ऐसी ही प्रेम कथाओं में से एक है नल-दमयंती की कहानी. हाँ नाम सुना है इनका, ये तो कई लोग बता देंगे, लेकिन कहानी क्या थी ये बताना कई लोगों के लिए मुश्किल होगा.

सभ्यता के विकास के साथ ही उस संस्कृति की अपनी कथाओं का भी महत्व होता है. संस्कृति की कहानियों के गायब होने में आप सभ्यता का सिमटना-सिकुड़ना भी ढूंढ सकते हैं. ईरान से भगाए गए पारसियों की कोई लोककथा मालूम है क्या?

खैर तो नल-दमयंती जैसी कहानियों से सबसे पहले तो आप लिखना भी सीख सकते हैं. ये कहानियां मूल ग्रन्थ में तो आम तौर पर एक अध्याय में सिमट आती हैं, लेकिन उसी में साहित्यकार जब अपनी कल्पना से दृश्य, व्यक्ति के साथ व्यक्तित्व, पात्रों की आपसी बात-चीत जैसी चीज़ें जोड़ देता है तो वो एक स्वतंत्र पुस्तक का रूप भी ले सकती है.

वैसा ही कुछ जैसा छोटी सी शकुंतला की कहानी के अभिज्ञानशाकुन्तलम या फिर शिव और अर्जुन के भेंट की एक घटना किरातार्जुनीय बन जाती है. नल-दमयंती से प्रेम-कथा लिखने के बारे में ये सीख सकते हैं कि कहानी कैसे चलती है?

कथा में एक नायक-नायिका होंगे, जिन्हें एक दूसरे से प्रेम होगा, इनका मिलन होगा लेकिन इतनी आसानी से नहीं. मिलन की शुरुआत में ही व्यक्ति या घटनाओं की वजह से कोई बाधा आ खड़ी होगी. फिर धीरे धीरे उन विघ्न बाधाओं को पार कर के नायक नायिका कहीं प्रेम कथा के अंत में मिलेंगे.

इस कहानी के नल निषादराज हैं, इन्हें तीरंदाजी, अश्वों की अच्छी जानकारी और रथ सञ्चालन के लिए भी जाना जाता था. जाहिर है निषाद और राजा एक साथ कहना कुछ आयातित विचारधाराओं को अच्छा नहीं लगेगा. उनके कथाक्रम में बाधा ना डाल दे, इसलिए भी नल-दमयंती की प्रेम कथा हटानी पड़ी होगी.

नायिका दमयंती, विदर्भ के राजा भीम की पुत्री थीं और दोनों ने एक दूसरे के विषय में पहले से सुन रखा था. कैसे? एक दिन राजा नल एक हंस पकड़ लेते हैं, तो वो हंस मानव स्वर में छोड़ दिए जाने की गुहार लगाता है. राजा नल कहते हैं ऐसे अनोखे बोलने वाले हंस को मैं छोड़ दूं? तो हंस प्रस्ताव देता है कि अगर उसे जाने दिया जाए तो वो उड़कर विदर्भ जाएगा, और राजकुमारी दमयंती से नल की तारीफ करेगा. इस रोचक प्रस्ताव पर राजा नल हंस को छोड़ देते हैं. उधर राजा भीम भी दमयंती के स्वयंवर की तैयारी करते हैं और नल की तारीफ सुनकर दमयंती पहले से ही नल के स्वयंवर में आने का इन्तजार कर रही होती है.

दूसरी तरफ दमयंती के रूप-गुणों की चर्चा स्वर्ग तक पहुँचती है और इंद्र, वरुण, अग्नि, यम आदि देवता भी इस स्वयंवर में भाग लेने निकलते हैं. रास्ते में देवताओं की भेंट नल से होती है जो स्वयंवर में ही भाग लेने विदर्भ जा रहे थे. ब्राह्मणों का वेश धारण किये देवता नल के सामने पहुँच जाते हैं और जैसे ही नल उनकी मदद का वादा करता है, वो कहते हैं कि वो सब स्वयंवर में जा रहे हैं. अब नल आगे आगे जाए, दमयंती को देवताओं के स्वयंवर में शामिल होने की खबर दे और उस से कहे कि वो देवताओं में से ही किसी को चुने! नल गिड़गिड़ाता है कि उसे अपनी ही पसंद की लड़की के पास देवताओं का दूत ना बनाया जाए लेकिन देवता मानते नहीं.

दमयंती तक पहुँचने की समस्या थी तो वो उसे गायब होने जैसी शक्तियां भी देकर वचन पूरा करने के लिए मजबूर करते हैं. नल जब अदृश्य अवस्था में दमयंती के पास पहुँच के उसे देवताओं का सन्देश देते हैं तो वो कहती है तुम्हारा काम सन्देश देना था, वो तुम कर चुके, किसे चुनना है वो फैसला तो मुझे करना है तो वो मैं कर लूंगी.

देवताओं को अंदाजा हो जाता है कि दमयंती, स्वयंवर में नल को ही चुनेगी. तो वो एक और चाल चलते हैं. चारों के चारों देवता अपना रूप नल जैसा ही कर लेते हैं. दमयंती सामने माला लिए आती है, एक बार चकित भी होती है. बेचारे नल जहाँ सर झुकाए देवताओं के बीच पसीने से भीगते खड़े थे, वहीँ देवताओं को गर्मी में भी पसीना नहीं आ रहा था, ना उनकी मालाओं में फूल जरा भी कुम्हलाये थे.

दमयंती पहचान लेती है कि मानव कौन है और देवता कौन, और असली नल को माला पहना देती है. दमयंती की बुद्धिमत्ता पर मुस्कुराते, और नल के वचन का पालन करने से प्रभावित होकर देवता नल को अपनी अपनी तरफ से वरदान दे जाते हैं. यम पाककला में निपुण होने का तो वरुण-अग्नि ने उन्हें पानी और आग से कोई नुकसान ना होने और उनके आदेश मात्र पर इनके प्रकट होने का वर दिया. इंद्र उनके सभी यज्ञों में उपस्थित होंगे ऐसा कह गए और देवताओं के संदेशवाहक बनने के कारण आगे से सभी द्वार उन्हें अपने आप मार्ग देंगे, ये वर चारों देवताओं ने मिलकर दिया.

पूरे प्रकरण में कोई खुश नहीं हुआ तो वो था कलियुग. उसे लगा कि इसमें देवताओं की बेइज्जती हुई है, मानव को देव से बेहतर नहीं चुना जाना था. लिहाजा उसने द्वापर के सहयोग से योजना बनाई और नल पर आकर सवार हो गया. सर पर कलि सवार होने से राजा नल की द्युत (जुए) में रूचि होने लगी. वो अक्सर पुष्कर के जुए के आमंत्रण को ठुकरा दिया करते थे लेकिन कलियुग के प्रभाव में उन्होंने ये प्रस्ताव स्वीकार लिया. सर पर कलियुग था और पासों में द्वापर ने प्रवेश किया, तो नल जुए में हारने भी लगे. उनके दरबारियों मंत्रियों ने उन्हें रोकने की कोशिश भी की, लेकिन वो माने नहीं और सब कुछ हारते गए.

आखिर जब वो राज-पाट, धन-दौलत, सब हार गए तो पुष्कर ने उनसे पूछा अब तो तुम्हारे पास कुछ बचा नहीं, अब क्या दांव पर लगाओगे? हार से भी ज्यादा अपनी मूर्खता से शर्मिंदा नल ने अपनी तलवार उठाई, मुकुट, माला-जेवर सब त्यागे और जिस हाल में थे वैसे ही सब छोड़कर वन की ओर चले. दमयंती भी अपने जेवर वगैरह छोड़कर उनके साथ चली. वन में कई दिनों तक उन्हें जब खाने को कुछ नहीं मिला तो एक दिन कुछ पक्षी दिखे. नल ने सोचा इनपर कपड़ा डालकर इन्हें पकड़ लिया जाए तो खाने का प्रबंध हो जाएगा. जैसे ही उन्होंने छोटे दिखते पक्षियों पर अपनी धोती डाली पक्षी उल्टा धोती ही ले उड़े.

दमयंती को इतनी बाधाओं को एक साथ प्रकट होते देख किसी दुष्प्रभाव की आशंका हो गई थी. उसने अपनी आधी साड़ी नल को दी और उनसे अपने साथ विदर्भ चलने को कहा. लेकिन जहाँ सम्मानित अतिथि थे, वहां ऐसी दयनीय अवस्था में कैसे जाएँ, ये सोचकर नल ने ससुराल-विदर्भ जाने से मना कर दिया.

रात जब दोनों सोये तो दमयंती ने अपने कपड़ों से नल के कपड़ों में गाँठ बाँध रखी थी. नल ने सोचा उनके बिना दमयंती जरूर अपने मायके वापस चली जायेगी और उसे कष्ट नहीं झेलना पड़ेगा, तो देर रात चुपके से नल ने गाँठ काटी और भाग गए. सुबह नल को ना पाकर दमयंती उन्हें इधर उधर ढूँढने लगी.

वहां से भागते नल को रास्ते में एक जगह आग लगी दिखी जिसके बीच कहीं से जान बचाने की पुकार आ रही थी. नल को अग्नि से नुकसान ना होने का वर तो था ही, वो आग में घुस गए. वहां कर्कोटक नाम का एक नाग फंसा हुआ था, नल उसे बचा कर निकालने लगे.

उधर नल को ना ढूंढ पाने पर क्षुब्ध दमयंती ने इस सारे फसाद की जड़ को नरक कुंडों की सी अग्नि में जलते रहने का शाप दे डाला. दमयंती का शाप देना था कि कर्कोटक ने खुद को बचा रहे नल को ही डस लिया! नल घबराते इस से पहले ही कर्कोटक ने कहा घबराओ मत, मेरे विष से तुम्हें कुछ नहीं होगा, लेकिन तुम्हारे अन्दर जिस कलियुग ने प्रवेश कर रखा है, वो विष के ताप से जलता रहेगा.

विष के प्रभाव कलियुग पर पड़ने से नल का शरीर (जिसे कलियुग ने हथिया लिया था) काला पड़ गया और स्वरुप भी काफी बदल गया. कर्कोटक ने ही सलाह दी कि अब तुम्हें कोई पहचानेगा भी नहीं, तो तुम जाकर कहीं और जीवन-यापन के लिए कुछ काम ढूंढ सकते हो.

उसने अयोध्या के राजा ऋतुपर्ण का नाम सुझाया जो संख्याओं और द्युत में माहिर थे. साथ ही कहा कि उनके अस्तबल में काम करते तुम अपने घोड़ो के ज्ञान के बदले में उनसे संख्या और द्युत का ज्ञान ले लेना. दूसरी तरफ दमयंती सफ़र करते पुरोहितों के साथ मिलकर चेदी के राजा सुबाहु के महल के पास पहुंची जहाँ रानी ने दया करके उन्हें सैरिंध्री का काम दे दिया.

यहाँ महाभारत की मूल कथा से आप कई साम्य देख पायेंगे. भेष बदलकर नकुल-सहदेव की तरह दूसरे राजा के अस्तबल में राजा नल का काम ढूंढना, कलियुग के प्रभाव में उल्टे अपना नुकसान कर लेना, दमयंती का सैरिंध्री बनने का काम भी वही है जो द्रौपदी ने अज्ञातवास के दौरान किया था.

ये सब महाभारत के दूसरे पात्रों ने कभी ना कभी बाद में भी कर रखा है. लेखन सीखने के मामले में आप यहाँ ये भी देख सकते हैं कि पूरी महाभारत की मुख्य घटनाओं को समेट कर एक छोटा रूप कैसे दिया जा सकता है. कुछ घटनाओं को काटकर हटा देना, या कुछ में फेर बदल कर देना भी उतना मुश्किल नहीं होता.

आगे कहानी कुछ यूँ चलती है कि राजा ऋतुपर्ण के यहाँ ही राजा नल का पुराना सारथि वार्ष्णेय भी काम करने लगा था. यहाँ फिर से सारथी के काम में और वृष्णि या वार्ष्णेय कुल (जो यादव वंश का एक हिस्सा होते थे) के नाम में आप श्रीकृष्ण के अर्जुन का सारथी होने से सम्बन्ध ढूंढ सकते हैं.

जो भी हो, ये वार्ष्णेय अपने नए साथी बाहुक के राजा नल से समानता पर अचंभित तो रोज़ होता था, लेकिन बदले रंग-रूप में पहचान नहीं पाता था. उधर दमयंती के स्वभाव और व्यवहार से चेदी की रानी को फ़ौरन शक होने लगा कि ये दासी होने लायक नहीं है. महिलाओं की छठी इन्द्री ऐसे मामलों में पुरुषों से बेहतर ही होती है.

इसी बीच चेदी में विदर्भ का एक पुरोहित सुदेव नल-दमयंती को ढूंढता आया और उसने रानी से मिलकर उन्हें दमयंती की भौं के बीच एक जन्मचिन्ह के बारे में बताया. साथ ही सुदेव ने ये भी कह दिया कि रानी की सैरिंध्री काफी कुछ दमयंती जैसी ही लगती है. रानी ने दमयंती का चेहरा धुलवा लिया और निशान देखकर उसे पहचान लिया. अब समस्या थी कि दमयंती के पति को ढूँढने के लिए चेदी के राजा ने लोग भेजे तो थे, मगर वो अबतक मिले नहीं थे. मायके पहुँचते ही दमयंती ने संदेशवाहकों को सिखाया कि वो एक गाना गाते घूमें और देखें कि उसका असर किसपर होता है. गाने का आशय कुछ ऐसा था जो कहता था जुआरी तुमने बंधन काट के मुझे गिर जाने दिया, कब आकर इस दुःखों की खाई से मुझे निकालोगे?

अयोध्या के राजा ऋतुपर्ण का सारथि बाहुक इस गाने से फ़ौरन आहत हुआ और उसने जवाब भी दे डाला. उसके जवाब का आशय था कि विपत्ति में पड़े हुए जिस आदमी का आखरी वस्त्र तक पक्षी ले गए हों, उसकी पत्नी को तो उसे माफ़ ही कर देना चाहिए. दमयंती को समझ तो आ गया कि बाहुक निस्संदेह नल ही है लेकिन बदले हुए रूप के कारण और जांच जरूरी थी. लिहाजा उसने अपने स्वयंवर का न्योता भेजा और राजा ऋतुपर्ण के पास संदेशा पहुंचा कि राजा नल के लापता हो जाने के कारण दमयंती दूसरा विवाह करना चाहती हैं. राजा ऋतुपर्ण पहले से ही दमयंती से विवाह के लिए उत्सुक थे तो उन्होंने अपने सारथियों को लिया और एक ही दिन में अयोध्या से विदर्भ पहुँचाने का आदेश दिया. मजबूरी में बाहुक और वार्ष्णेय उनके साथ विदर्भ रवाना हुए.

बाहुक ने रथ में दुबले पतले घोड़े जोते तो राजा ऋतुपर्ण ने आश्चर्य प्रकट किया. बाहुक ने अपने घोड़ो की जानकारी के प्रति राजा को आश्वस्त किया और रथ हांक चले. थोड़ी ही देर में जब राजा घोड़ों की गति देखकर बाहुक की काबिलियत के बारे में आश्वस्त हुए तो उन्होंने भी अपनी संख्या की जानकारी दिखाते हुए दूर से ही एक पेड़ की सारी पत्तियां गिन डाली. ऋतुपर्ण ने रास्ते में संख्या और द्युत की जानकारी बाहुक को दी. ज्ञान मिलना था कि छटपटाता हुआ कलियुग बाहुक के शरीर से भागा.

विष का प्रभाव झेलता हुआ भी जो कलियुग निकला नहीं था, वो ज्ञान का प्रभाव नहीं झेल पाया. रथ हांकते जब बाहुक विदर्भ पहुंचे तो कई लोगों को लगा जैसे राजा नल ही आये हों. रथ के आने की आवाज वैसी ही थी! अब आज के जमाने में परिवार के लोग एक ही गाड़ी की आवाज में अंतर से बता देते हैं कि परिवार का कौन सा सदस्य गाड़ी चला रहा होगा, रथ की आवाज में भी ऐसे ही किया जा सकता है या नहीं, पता नहीं? राजा ऋतुपर्ण के उचित आतिथ्य के बाद बाहुक नल है या नहीं इसकी भी जांच होनी थी. इसके लिए दमयंती ने अपनी दासी से बाहुक को रसोई के काम में लगाने को कहा.

साथ ही दमयंती ने दासी केशिनी से कहा कि रसोई में काम करते वक्त अगर ये आग या पानी मांगे तो जान बूझकर देर करना. छुपकर देखना कि ये करता क्या है. नजर रखने गई केशिनी थोड़ी ही देर में भागी भागी आई, उसने बताया की देर करके वो छुपकर देख रही थी. बाहुक के आदेश भर से अपने आप बर्तनों में पानी और लकड़ी में आग भर ही नहीं लगती, जब वो भंडार में घुसता है तो छोटे द्वार बड़े हो जाते हैं, उसे झुकना नहीं पड़ता, ऊपर से उसके छूने से कुम्हलाये फूल खिल जाते हैं. अब शक की कोई गुंजाइश नहीं बची थी, बाहुक ही राजा नल थे. अंतिम परिक्षण के लिए दमयंती ने अपने दोनों जुड़वां बच्चों को सामने कर दिया जिन्हें वर्षों से नल ने देखा नहीं था !

अब छुपने का कोई तरीका नहीं बचा और नल-दमयंती मिले. कर्कोटक नाग ने कुछ वस्त्र दिए थे जिन्हें पहनकर नल का पुराना रूप वापस आ सकता था. कहानी के अंत में नल उन्हें पहनकर अपने असली रूप में वापस आये. राजा ऋतुपर्ण की द्युत की जानकारी के बदले उन्हें घोड़ों के बारे में सिखाया. कलियुग का प्रभाव जा चुका था और वो द्युत भी सीख गए थे तो उन्होंने पुष्कर से अपना राज्य वापस भी जीत लिया. यहाँ जो आपने पढ़ा है वो महाभारत की एक कहानी में मेरी जोड़ तोड़ का नतीजा है. कहीं समाजशास्त्र तो कहीं दूसरी कहानियां घुसाने की कोशिश हमने की ही है.

इसके साथ ही आपका इस बात पर भी ध्यान गया होगा कि लिखने के बारे में इसमें कहीं कहीं इशारे हैं. इसे बड़ा किया जा सकता है, छोटा भी, जैसे का तैसा भी छोड़ सकते हैं. किसी फेसबुक पोस्ट के लिहाज से इसे लम्बा कह सकते हैं, किसी अखबार की कहानी की तुलना में इसे छोटा भी मान सकते हैं. धारावाहिक, या क्रमशः में होना चाहिए ये भी सोचा जा सकता है. आधुनिक प्रेम कथाओं जैसी है या नहीं, या उस रूप में ढलेगी क्या ? इसपर भी अलग अलग राय होगी. कुल मिलाकर महाभारत के साथ क्या करना है ये इसपर निर्भर है कि पढ़ने वाला क्या चाहता है? कब किस रूप में सामने आती है ये पन्ने पलटने वालों को देखने दीजिये.

(तस्वीर डॉ. एस.एम. पंडित की नल-दमयंती की कृति है)

महाभारत और प्रेम

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