नीयत साफ़ हो और मेहनत से बढ़ें, तो कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती कोई कमी, बंदिश

मैंने 1984-85 वित्तीय वर्ष में 25 हजार वाली प्रधानमंत्री रोज़गार योजना (PMRY) के लोन के लिए एप्लाई किया.

जिला उद्योग अधिकारी (DIC) पर एप्लीकेशन मंजूर करने के लिए दलाली का माहौल जोरों पर था… लेकिन रिश्वत-दलाली ना देना मेरा शौक था…

और उधर इंटरव्यू कमेटी के सामने मेरी ऑइल एक्सपेलर इकाई का प्रेक्टिकल नॉलेज वाले उत्तरों से मैं निश्चिंत था कि मेरा लोन मंजूर नहीं हुआ तो होना किसी का भी नहीं…

आशा के अनुरूप लोन मंजूर तो हुआ लेकिन मात्र 18,700 रुपयों का… और हालत ये थी कि मशीनरी का कुल सेटआप ही 25 हजार रुपयों से भी कहीं ज्यादा का था…

मार्च का महीना था, बैंक मैनेजर थे कोई ज़ैदी साहब… उन्होंने बड़े सहानुभूति पूर्ण तरीके से मुझे बहलाया और एप्लीकेशन लिखवा ली कि 18,700 रुपयों में मेरी इकाई नहीं लग पाएगी…

फिर उस एप्लीकेशन की बाबत DIC गया तो बताया गया कि अब तो वित्तीय वर्ष खत्म हो गया… अगली बार देखना.

उस वर्ष हमारे बिजनस वाले आलू के भयंकर मंदे ने हमारे घर की आर्थिक हालत की कमर तोड़ के रख दी थी…

मुझे याद है DIC से ये जवाब सुन 24 वर्ष की युवावस्था होते हुए भी भयंकर चक्कर आ गये और में वहीँ जिला उद्योग अधिकारी के ऑफिस में गिरते गिरते बचा था…

मैं समझ चुका था कि मैनेजर ज़ैदी ने मुझे बड़ी होशियारी से बेवक़ूफ़ बना दिया था… आगरा से खंदौली आकर टैम्पो से सीधे बैंक पर उतरा और बाहर काउन्टर से ही मैनेजर की माँ-बहिन से रिश्ता जोड़ने लगा…

मैनेजर भीतर खजाने वाले कमरे में घुस गया… पुलिस आई और भईया भी बैंक पहुँच गए थे… SO और भईया मुझे बैंक से ले आये…

अब अच्छा ये हुआ कि 84-85 की इन्हीं तमाम एप्लीकेशन्स के लिए 1985-86 के लिए सीधे कॉल लेटर आ गये… और तब 24,600 हज़ार का लोन मंजूर हो गया…

इंटरव्यू वालों ने बैंक का नाम पूछा तो मैंने उसी ज़ैदी वाली बैंक का ही नाम बता दिया.

उसकी माँ बहिन से रिश्ता जोड़ने के बाद ये बहुत बड़ा रिस्क था… सो घर आकर बात छुपा गया कि बैंक का नाम मैंने ही बताया है.

खैर साहब बैंक में चिट्ठी आने तक मशीनों की रेट आदि पूछ लिए, मशीनों पर 5000 रुपये बढ़ चुके थे… लगा भाग्य में नहीं है अपना ये वाला रोजगार…

लेकिन दिमाग शातिर हमेशा था, सो पुरानी मशीनें ढूंढना शुरू कीं… 18000 रुपयों में सौदा भी कर लिया…

फिर पहुंचे बैंक में… ज़ैदी साहब ने हंस कर हाथ मिलाया तो राहत मिली… टर्म लोन के लिए 18,000 रूपए ही मंजूर होकर आये थे बाकी cc के लिए था…

अब बात आई बिल की तो मैंने मैनेजर को अपनी फोर्जरी वाली स्कीम बतायी तो मैनेजर बोला ‘हमको कोई मतलब नहीं, हमको बिल और उसके बाद रनिंग यूनिट चाहिए…’

अब मैंने घरवालों से छुपा कर अपनी योजना पूरी की… मशीन एक अशोक कुमार से ली थी… ‘मेसर्स अशोक कुमार’ के नाम से बिल छपवाए… बिल पर सेल्स टैक्स के आगे A/F (एप्लाइड फॉर) छपवाया और लिखवाया ‘सप्लायर ऑफ़ ऑल काइंड्स ऑफ़ मशीनरी’.

अशोक कुमार को बैंक का चैक दिया और बैंक में अपने हाथों छपवाया बिल जमा कराया… बिल पर रकम के आगे लिख दिया था ‘ऑल टैक्सेज़ इंक्लूडेड’

यहाँ आप लोग सोच रहे होंगे कि ये मामला फोर्जरी का था… लेकिन मैं बिलकुल सेफ था…

क्योंकि मैंने वो यूनिट लगाई थी और मशीन भी अशोक कुमार से ही ली थी… बैंक के ही चैक से…

अब दो साल बाद PMRY 50000 की हो गयी थी… हमारा काम चल निकला था… 37,800 रूपए का लोन बड़े भईया के नाम से यूँ ही हेकड़ी से मंजूर कराया…

एप्लीकेशन दूसरी बैंक में आई… दो महीने तक मैनेजर टरकाता रहा… और एक दिन लोन मैनेजर बोला ‘आप फर्जी लोन ले रहे हैं हमने एप्लीकेशन वापस कर दी…’

अब फिर से वो ही हाल… आँखों के सामने अन्धेरा छा गया…

और फिर लोन मैनेजर का स्वेटर पकड़ कर खींच कर डाल लिया वहीँ बैंक में… बैंक का गार्ड आया बंदूक लेकर… अलार्म भी बज गया… साउथ इंडियन मैनेजर ने अपने केबिन का दरवाजा बंद कर लिया था…

पुलिस के आने तक लोन मैनेजर का स्वेटर फट चुका था… और ऊपर से वो अनूसूचित जाति (SC) का था… अंदर ही अंदर घरवालों का डर भी लग रहा था… लेकिन सपनों पर जो तुषारापात हो रहा था उसकी वजह से मेरा दिमाग आपे में नहीं था…

पुलिस अफसर (SO) से उठना बैठना था… और बैंक स्टाफ वाले मेरी बदतमीजियों से वाकिफ थे… कुछ स्थानीय बड़े आढ़तिये बैंक में आकर मुझे बुला ले गए…

हालांकि मुझे कोई आशा तो थी ही नहीं… पर भगवान की कृपा थी हमारे घर पर जो दूसरे दिन मैनेजर का बुलावा आ गया कागज भरवाने के लिए…

अब फिर वो ही हालत लोन 37,800 रूपए मंजूर हुआ, मशीनरी के लिए मात्र 28,000 रूपए मंजूर हुए थे… मशीने 35 हजार की हो चुकीं थी… मशीन नयी लेने पर भी मैन्युफेक्चरर 5 की बजाय 10% सेल्स टेक्स की राशि मांग रहा था… सो….

अबकी बार कोटेशन मैंने अपने सबसे बड़े भईया के नाम से बनवा कर दिया…

यहाँ फोर्जरी पर मैं सेफ था… चैक भी भईया ने ही भुनाया… बिल भी दिया… लेकिन बिल में नयी पुरानी मशीन लिखी ही नहीं… बिल एक दम फैंटास्टिक छपवाया था…

मुझे काम करना ही था… एक बार सब्सिडी वाला टास्क फ़ोर्स आया… मशीनें चलतीं दिखीं… सब्सिडी पास कर गए…

इसी क्रम में 1993 में एक लाख की PMRY के 87,600 रुपयों के लोन से तीसरी मशीन लगाई… इसी तरीके से… और उस बार लखनऊ से टीम आई…

तीन लोन, दो बैंक… लेकिन मशीनें एक ही परिसर में चल रहीं थीं… हम दो भाई केवल अन्डरवियर बनियान पहने मशीनों की मरम्मत कर रहे थे…, आधे से ज्यादा तेल में भीगे हुए ….

और ऊपर से उस टीम के चीफ थे वे ही सबसे पहले वाले ‘ज़ैदी साहब’

मेरी और भईया की तो फूंक सी खिसक गयी… लेकिन ज़ैदी साब अपने साथियों से कह रहे थे…

“इस पेड़ का बीज मेरा बोया हुया है… देखिए रेगिस्तान में कितना लहलहा रहा है…”

इसे कहते हुए ज़ैदी साब की आँखों की नमी और भर्रायी आवाज को हम भाई साफ़ महसूस कर रहे थे…

ज़ैदी साब ने मेरे गालों को दोनो हाथों से जिस प्यार से थपथपाया, उसने मुझे ताकत दी कि नीयत में खोट ना हो और मेहनत से बढ़ो तो कोई कागज़ी कमी, सरकारी कानूनों की बंदिश आपका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती.

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