सदियों पहले, जब सीमेंट नहीं था, तब बनी अनेक इमारतें आज भी उसी शान से खड़ी हैं. बड़े-बड़े किले, मंदिर, मीनारों में पत्थरों-ईंटों की जोड़ाई सीमेंट से नहीं बल्कि चूना-बेल-गुड़-गारे आदि से बनाए गए मिश्रण से की जाती थी. मजाल है कि ढांचा टस से मस हो जाए. न कूलर की जरूरत पड़ती थी, न एयरकंडीशनर की.
बढ़ती गर्मी, सीमेंट के आसमान छूते दाम और इसकी निर्माण प्रक्रिया के दौरान होने वाले प्रदूषण से बचने के लिए अब सदियों पुरानी उसी तकनीक की ओर वापसी का संकेत मिल रहा है. छत्तीसगढ़ में तो प्रयोग सफल भी रहा है.
बिलासपुर के गनियारी जन स्वास्थ्य केंद्र परिसर में इन दिनों इसी पद्धति से आलीशान इमारतें तैयार हो रही हैं.
क्यों पड़ी ज़रूरत
दरअसल इस अस्पताल में बड़ी संख्या में ऐसे मजदूर इलाज कराने आ रहे हैं, जिन्हें सांस लेने में दिक्कत और त्वचा संबंधी बीमारी होती है. जांच में पता चला कि उनकी परेशानी का कारण सीमेंट है, जो सांस के जरिए उनके शरीर में जा रहा है.
छत्तीसगढ़ से हर साल हजारों की संख्या में मजदूर पलायन करके देशभर के बड़े शहरों में जाते हैं. इनमें से ज्यादातर निर्माण क्षेत्र में काम करते हैं. जब वे वापस लौटते हैं तो अपने साथ इस तरह की बीमारियां भी लेकर आते हैं.
अकेले गनियारी जन स्वास्थ्य केंद्र में ही सालभर में ऐसे करीब पांच हजार मरीजों का इलाज होता है. यहां के डॉक्टरों ने इसका हल निकालने पर विचार किया, तो अंतत: उन्हें यही समाधान सूझा. स्वास्थ्य केंद्र परिसर में नए भवनों का निर्माण किया जाना था. डॉक्टरों की सलाह पर प्रशासन ने यहां पुरानी पद्धति से मकान बनाने का निर्णय लिया, ताकि इस गंभीर विषय पर जागरूकता भी बढ़ाई जा सके.
शुरुआत हुई नर्सिंग हॉस्टल के निर्माण से
प्रयोग सफल रहने पर अब अस्पताल के ज्यादातर भवनों का नवनिर्माण पुरानी तकनीक से ही किया जा रहा है. कुछ बनकर तैयार भी हो चुके हैं.
घिरनी से चूना, बेल से सीमेंट जैसा पेस्ट तैयार करना पुरानी तकनीक है.
बस यह है कि इसमें समय ज्यादा लगता है और बेल के फल हर सीजन में उपलब्ध नहीं होते हैं. बेल के गूदे से तैयार मिश्रण पूरी तरह ईको फ्रेंडली है और इन मकानों की मजबूती भी बेमिसाल है. यहां रहने वालों को हर मौसम में राहत मिलती है.
इस पद्धति से बने दो से तीन मंजिला भवन को देखने पर पता भी नहीं चलता है कि यह सैकड़ों साल पुरानी विधि से तैयार हुआ है.
गर्मियों में रहते हैं ठंडे
इस तकनीक से बने भवन पूरी तरह इको फ्रेंडली यानी पर्यावरण अनुकूल भी हैं. सीमेंट से बने मकान की तुलना में इनमें तापमान चार से पांच डिग्री तक कम रहता है. गर्मी के दिनों में यहां कूलर के बिना भी लोग आराम से रह रहे हैं.
ऐसे तैयार होता है पेस्ट
सबसे पहले चूने को पानी में घोलकर 17 दिनों तक गलने दिया जाता है. इसके बाद गारा तैयार करने के लिए पकी हुई मिट्टी जैसे छप्पर, ईंट आदि को पीसकर घोल में मिलाया जाता है. फिर पके हुए बेल के गूदे को उबालकर इसके साथ मिलाया जाता है. कुछ दिन रखने के बाद मिश्रण तैयार हो जाता है.
- स्त्रोत – जागरण