भारत में इम्पोर्ट एक्सपोर्ट का धन्धा हमेशा से फेमस रहा है. करने वाले इसे अपने विज़िटिंग कार्ड की तरह इस्तेमाल करते हैं.
भारत सरकार भी विदेशी मुद्रा कमाने वाले एक्सपोर्टर्स को खासी सुविधाएँ देती है. एक्सपोर्टर्स को अक्सर कच्चा माल विदेशों से मंगाना होता है, जिससे वो अपने प्रोडक्ट तैयार कर विदेशो में बेचते हैं. इनके लिए सरकार बैंकिंग में विशेष सुविधाओं का इंतज़ाम रखती है.
ऐसे इम्पोर्टर्स को विदेशी बैंकों से विदेशी मुद्रा में बेहद सस्ता क़र्ज़ मिलता है. ये क़र्ज़ बायर्स क्रेडिट कहलाता है और उस देश के निर्यातक कंपनी द्वारा जारी इनवॉइस पर मिलता है.
जैसे किसी देसी कंपनी ने ब्रिटेन की किसी कंपनी से कोई माल ख़रीदा तो ब्रिटेन का कोई बैंक उस माल की कीमत के बराबर क़र्ज़ा देसी कंपनी को देता है.
ये क़र्ज़ा बेहद कम समय के लिए होता है. उतने समय के लिए जितने में देसी कंपनी इस माल से अपना प्रोडक्ट बनाकर उसे बेच सके.
जैसे किसी कंपनी ने ब्रिटेन से सोना ख़रीदा, ब्रिटेन के बैंक से 3 महीने के लिए क़र्ज़ा लिया और इन तीन महीनों में इस सोने से गहने बनाकर बाज़ार में बेचकर बैंक को उसका क़र्ज़ा चुका दिया.
लेकिन इस क़र्ज़े के लिए विदेशी बैंक भारतीय बैंक द्वारा गारंटी की मांग करता है, ताकि अगर कम्पनी क़र्ज़ा चुका न सके तो भारतीय बैंक वो क़र्ज़ बमय ब्याज चुकाए.
भारतीय बैंक एक लेटर ऑफ़ अंडरटेकिंग उस विदेशी बैंक को जारी करता है. इस लेटर के आधार पर विदेशी बैंक वो क़र्ज़ा देसी बैंक के NOSTRO अकाउंट में डाल देता है.
ये NOSTRO अकाउंट देसी बैंक का विदेशी बैंक में अकाउंट होता है और ये भी हो सकता है कि वो विदेशी बैंक दरअसल किसी भारतीय बैंक की ही विदेश में शाखा हो.
देसी बैंक उस विदेशी कंपनी को उसके माल का भुगतान इस पैसे से कर देता है.
जब देसी कंपनी के क़र्ज़े का समय पूरा होता है तब वो देसी बैंक को भारत में क़र्ज़े को ब्याज और देसी बैंक की मामूली फीस के साथ भुगतान कर देता है.
देसी बैंक विदेशी भारतीय बैंक को उसका पैसा और ब्याज चुका देता है.
जिस तरह विदेशी बैंक ने क़र्ज़ा देने के लिए भारतीय बैंक की गारंटी ली. उसी तरह देसी बैंक देसी कंपनी से इस लेटर को जारी करने के लिए सिक्योरिटी मांगता है.
और ये सिक्योरिटी फिक्सड डिपॉजिट के रूप में हो सकती है, ज़मीन, फैक्ट्री गिरवी रख के हो सकती है या बैंक द्वारा कंपनी को जारी क्रेडिट लिमिट के जरिये हो सकती है.
2011 में नीरव मोदी ने जब पहली बार पंजाब नेशनल बैंक के जरिये पहली लेटर ऑफ़ अंडरटेकिंग विदेश भिजवाई. तब PNB फ्रॉड की नींव पड़ी. क्योंकि बैंक के ऑफिसर ने उससे कोई सिक्योरिटी नहीं ली. नीरव मोदी की कंपनी को PNB द्वारा कोई लिमिट सैंक्शन नहीं थी, कोई कोलेट्रल नहीं दिया गया था.
ये फ्रॉड तब भी न हुआ होता अगरचे हीरे मंगाने के बाद, ज्वेलरी बनाने-बेचने के बाद नीरव मोदी की कंपनी ने बैंक को उसका पैसा चुका दिया होता.
इसके बजाय नीरव मोदी ने एक चेन की शुरुआत की. उसने एक नयी लेटर ऑफ़ अंडरटेकिंग बनवाई जो मूल पैसे और ब्याज के बराबर थी और उससे पहला क़र्ज़ चुकाया.
और फिर दूसरे क़र्ज़ के लिए एक और अंडरटेकिंग. सिलसिला सात साल चला. 290 अंडरटेकिंग तक पहुँच गया.
जिस ऑफिसर गोकुलनाथ शेट्टी के जरिये 7 साल ये सिलसिला निर्बाध चला, एक सामान्य बिजनेस के तौर पर चला, वो रिटायर हो गया.
2018 की शुरुआत में नया अफसर आया. नीरव मोदी की कंपनी उसके पास लेटर ऑफ़ अंडरटेकिंग लेने पहुंची, उसने सिक्योरिटी मांगी.
नीरव मोदी की कंपनी ने बताया कि आजतक उन्होंने कोई सिक्योरिटी नहीं दी है. उन्हें ये लेटर ऐसे ही मिलता है.
उस अफसर ने बैंक के रिकॉर्ड चेक किये. बैंक के कोर बैंकिंग सिस्टम में ऐसी अंडरटेकिंग का कोई रिकॉर्ड नहीं मिला.
जांच शुरू हुई. 5 फरवरी को PNB ने पहला घोटाला 280 करोड़ का स्टॉक एक्सचेंज को रिपोर्ट किया. उसके बाद भी जाँच जारी रही. नीरव मोदी के अलावा मेहुल चौकसी की गीतांजलि के भी लेटर अनधिकृत पाए गए.
जाँच के बाद घोटाला 11500 करोड़ पहुँच गया.
सामान्यत: जब भी बैंक लेटर ऑफ़ अंडरटेकिंग विदेशी बैंक को जारी करता है तो उसके लिए 1974 में बनी SWIFT तकनीक को इस्तेमाल करता है.
विदेशी बैंक SWIFT द्वारा मेसेज मिलने के बाद वापस एक्नोलेज करता है जो बैंक ब्रांच में नहीं बल्कि बैंक के एक सिक्योर रूम में आता है और बाकायदा प्रिंट होता है. इस प्रिंटेड कॉपी को बैंक अपने रिकॉर्ड से मिलाता है.
आम तौर पर सभी बैंक SWIFT तकनीक को अपने कोर बैंकिंग सिस्टम से इंटीग्रेट करके रखते हैं ताकि सभी रिकॉर्ड मिलाये जा सकें.
भारत में प्राइवेट बैंक जैसे एक्सिस, HDFC, ICICI, यस बैंक का SWIFT उनके CBS से एकीकृत है.
स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया ने भी SWIFT सिस्टम को CBS से इंटीग्रेट किया हुआ है. लेकिन PNB और अन्य सरकारी बैंकों ने नहीं किया हुआ. उनके पास इसके लिए या तो पैसे नहीं थे या सरकारी प्रक्रिया समय लेती रही.
अभी तक यही कहा जाता रहा है कि ये घोटाला मोदी-चौकसी और कुछ बैंक कर्मचारियों की मिलीभगत का नतीजा है.
इस घोटाले की खबर 7 साल किसी को नहीं लगी. बैंक में 3 टियर ऑडिट होता है. Concurrent ऑडिटर्स होते हैं, Statutory ऑडिटर्स होते हैं, इंटरनल ऑडिटर्स होते हैं. जिनका काम ही एकाउंट्स का मिलान होता है. RBI के ऑडिटर्स अलग होते हैं.
संभव है लेटर ऑफ़ अंडरटेकिंग को CBS में नहीं डाला गया, लेकिन जब मोदी ने क़र्ज़ चुकाया तो क्या उसका मिलान नहीं हुआ. PNB के NOSTRO अकाउंट में पैसा आता रहा उसका भी मिलान नहीं हुआ. बैंक आखिर किन किन स्तर पर फेल हुआ.
देखा जाये तो बैंक की इंटरनल प्रणाली पूरी तरह बैठी हुई थी और भगवान भरोसे थी.
बैंक निश्चित तौर पर दोषी हैं क्योंकि ये सालों से स्पष्ट है कि इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट में करोड़ों की संदिग्ध डील्स होती आ रही हैं. RBI के सख्त निर्देश हैं एकाउंट्स के कन्साइलेशन के. इसके बावजूद बैंक ने कोताही बरती.
क्या सरकारों का भी दोष रहा?
भले शुरुआत 2011 में हुई. लेकिन कांग्रेस सरकार का दोष मुझे नहीं लगता. मैं नहीं समझता पोलिटिकल प्रेशर में नीरव मोदी या चौकसी को ये लेटर मिले.
कांग्रेस का दोष यही है कि उसने कभी भी बैंकिंग सिस्टम के लूपहोल्स को खत्म करने की कोशिश नहीं की. उसने लूट की हर सम्भावना को बरक़रार रखा.
लेकिन मोदी सरकार ऐसी नहीं थी, न है. मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही बैंकिंग सिस्टम में ढेरों बदलाव किये. उसने कमजोरियों को समझा.
और मुझे उम्मीद है कि वो घोटाले से सबक लेगी.
मोदी सरकार भले दोषी न हो लेकिन उसकी जिम्मेदारी बड़ी है.
बैंक के कर्मचारियों को पकड़ने से, कंपनी के कर्मचारियों को पकड़ने से हासिल कुछ नहीं. क्योंकि इससे घोटालेबाजों की हिम्मत नहीं टूटेगी.
ऐसे अभी न जाने कितने घोटाले होंगे, कितने बनने की राह में होंगे. इस घोटाले से क्या कोई डरा होगा, किसी ने ईमानदारी की कसम खायी होगी?
यही मोदी सरकार की जिम्मेदारी है. अन्यथा देश तो पहले भी अभिशप्त रहा ऐसे घोटाले सहन करने को.