जब मन्त्र नहीं थे आस पास
शब्द भी नहीं थे एक भी
सृष्टि रची जा रही थी शायद
सिर्फ एक ध्वनि, ॐ के इर्द गिर्द
तब हम कहाँ थे?
अब हम हैं…..
और तभी,
( या शायद इसीलिये ? )
अप्रासंगिक होते गए एक एक करके
ध्वनि, मन्त्र और सारे शब्द
चलन से बाहर हुए
धात्विक मुद्राओं की तरह…
ऊंचाई पर पहुँचते ही
पैर की ठोकर से
गिरा दी हमने वो सीढ़ी
पहुंचे थे जिससे हम यहाँ
हज़ारों हज़ार सालों बाद….
सबसे ऊंचे भवन के
सबसे ऊँची मीनार के
सबसे ऊंचे तल पर…
नहीं बचा अब
नीचे उतरने का जब एक भी विकल्प,
ऊपर,
और ऊपर,
और भी ऊपर
ॐ के अनंत निर्वात – विस्तार में
सोख लिए जायेंगे हम…..
– देवनाथ द्विवेदी