आज एक घटना हुई जिससे कुछ साल पहले की एक अन्य घटना याद आ गई. शायद 2014 या फिर 2015 की बात है.
इन्होंने फेसबुक पर अपना प्रोफाइल पिक्चर बदला. तमाम मित्रों के लाइक्स और कमेंट्स आने लगे. उन्हीं कमेंट्स में से एक कमेन्ट था, जो आज भी हम दोनों को शब्दश: याद है – यार, आप तो वाकई ‘माल’ हो!
आईडी किसी शांतिदूत नामधारी की थी, जो मित्र तो नहीं था, पर मित्र का मित्र (friend of friend) था. 20-22 साल का छोकरा था.
उसको इज्ज़त से समझाया… नहीं माना… फिर कॉमन फ्रेंड की पोस्ट्स पर उसके कमेंट्स पढ़ कर समझ आया कि ये बालक उन बुज़ुर्ग कॉमन फ्रेंड से बहुत सलीके से पेश आता है.
लगा कि शायद बुजुर्गवार का real life परिचित होगा. तो उन बुज़ुर्ग और स्वघोषित हिंदूवादी ब्राह्मण मित्र से निवेदन किया कि इस बालक को समझाएं.
उन्होंने इस पचड़े में पड़ने से इंकार कर दिया. वो तो बहुत बाद में समझ में आया कि वे बुजुर्गवार उन लोगों में से हैं जिन्हें फेसबुक पर ‘ठरकी बुड्ढे’ कहा जाता है.
इन बुज़ुर्ग ने ऐसे कई छोकरे पाले हुए थे और सबका उद्देश्य महिलाओं से मित्रता कर मनोरंजन मात्र था.
बहरहाल, उस शांतिदूत नामधारी की खबर तो उस समय नेशनल मीडिया में आई… इसके बाद वो बालक रोता-गिड़गिड़ाता इनबॉक्स में आया.
समाधान एक ही था, उस कमेन्ट को डिलीट कर, उस बालक को ब्लॉक करना, जो कि किया भी, साथ ही उन वयोवृद्ध मित्र(?) को भी.
अब ताज़ा मामला
पिछले दिनों इन्होंने अपने व्यक्तिगत अनुभव से उपजी एक पोस्ट डाली ‘रे फकीरा मान जा’, जो मुझसे शुरू होती हुई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर संपन्न होती है.
मोदी जी ने एक जनसभा में कहा था कि ‘हम तो फ़कीर हैं, झोला उठाएंगे और चल देंगे’. पोस्ट का सेंट्रल थॉट यही वाक्य था.
सभी मित्रों ने इसे बेहद पसंद किया और लगभग दो महीने पहले की इस पोस्ट पर अभी भी लाइक्स और कमेंट्स आ रहे हैं.
कुछ मित्रों को इनका जीवन तो कुछ को मेरा अविश्वसनीय लगा… कुछ को लगा कि चरित्र-चित्रण में इन्होंने अतिरेक से काम लिया… कुछ मित्र, जो इनकी पुरानी पोस्ट्स पर मेरे ज़िक्र को काल्पनिक मानते थे, उन्होंने कहा कि, इस पोस्ट से उनको सच्चाई का एहसास हुआ.
कुछ लोगों ने लेखन शैली की तारीफ़ की, तो कुछ ने नमो की, कुछ अंध-विरोधियों ने मोदी जी को भला-बुरा भी कहा. कहने का तात्पर्य यह कि सभी कमेंट्स पोस्ट के विषय संबंधित ही थे.
ऐसे में आज सुबह एक कमेन्ट आता है. फिर एक बार शांतिदूत नामधारी आईडी से, बिलकुल अलग से कमेन्ट में जनाब पूछते हैं – एक रात में कितनी बार सेक्स करता है आपका फकीरा?’
पिछली बार से उलट इस बार बिना किसी चक्कर में पड़े, कमेन्ट डिलीट किया, भाईजान को ब्लॉक किया.
विचार आया कि राष्ट्रवादी भावना से ओत-प्रोत पोस्ट पर किसी के मन में यह सवाल कैसे और क्यों उत्पन्न हुआ होगा. क्या सिर्फ इसलिए कि पोस्ट एक महिला, ठीकठाक सी दिखने वाली महिला (मेरी नज़र में ब्रह्माण्ड सुंदरी) की है?
फिर कुछ सात-आठ साल पहले किसी की जिज्ञासा का समाधान करते हुए कही गई बात याद आई. तब मैंने कहा था, शिश्नमुंड बेहद संवेदनशील होता है, और सेक्स के दौरान पुरुष के चरमसुख (orgasm) में महत्वपूर्ण योगदान देता है.
शिश्नमुंड को अनावश्यक (वस्त्रादि के) घर्षणों से सुरक्षित रखने वाले प्रकृतिप्रदत्त कवच (foreskin) को अपनी मान्यताओं के चलते बाल्यकाल में ही शांतिदूत कटवा लेते हैं, जिसके चलते युवावस्था को प्राप्त होने तक उनका शिश्नमुंड अपनी संवेदनशीलता खो चुका होता है.
ऐसे में यौनक्रीड़ा में संतुष्टि नहीं मिलती. अब अपनी मज़हबी मान्यताओं के चलते ‘ख़तना’ को तो इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकते सो, उनका सहज यकीन होता है कि उनकी ‘भोग्या’ में ही कोई कमी होगी, जो वह उन्हें संतुष्टि नहीं दे पाती.
फिर तलाशते हैं वे दूसरी… तीसरी… चौथी…, पर समस्या के मूल कारण का निवारण तो संभव है नहीं… इसलिए उनकी असंतुष्टि कुंठा में परिवर्तित हो जाती है और वे यूं ही उसका प्रदर्शन करते रहते है.
और यहां ‘रे फ़कीरा मान जा’ पढ़ कर कोशिश करें समझने की, कि कोई कैसे इसमें वो सोच सकता है, जो उन भाईजान ने सोचा और लिखा.