दर्शनाभिलाषी हूँ,
दर्शन करके ही लौट जाऊंगी…
बस आँचल में बाँध लाऊंगी कुछ सौगातें
अधिक कुछ नहीं मांगती मैं
बस तुम्हारी कनिष्ठिका के नख को
अपने दांतों से तोड़कर लाना है
ताकि उसकी नथ बनाकर पहन सकूं
तुम्हारी कलम पर उग आए
सफ़ेद बालों को गूंथकर
बाली बनाकर पहनना है कानों में
नियंत्रण रेखा से भागते
तुम्हारे अधर के आमंत्रण को
अपने सधर पर सजाना है
तुम्हारी हसली से उठाना है
स्वेद की कुछ बूंदे
और शुष्क नाभि पर
फूल उगाना है
तुम्हारी ऊंगलियों के बीच से गुज़रती हवा को
अपनी मुट्ठियों में भींच लाना है
तुम्हारी पीठ को तो छूना भी नहीं है
बस अपनी पीठ का तिल उसे सौंप आना है
तुम्हारे लौटते क़दमों के नीचे की माटी में
बो आऊँगी अपने प्रेम के बीज
जब जब उस पर फूल खिलकर झड़ेंगे
तुम्हें याद दिलाएंगे वो अंतिम बात
जब मैंने कहा था
फूलों का शाख से झड़ जाना भी
कभी कभी शुभ होता है
पारिजात की तरह….
– जीवन
अम्बर पर है रचा स्वयंवर फिर भी तू कतराए, तेरी दो टकिया दी नौकरी में मेरा लाखों का सावन जाये