मॉल में कपड़े देख रही थी. बगल में ही एक माँ अपनी बारह-तेरह साल की बेटी के साथ शॉपिंग कर रही थी. माँ ने बेटी को एक कुरती दिखाई तो बेटी ने बड़ी बदतमीजी से पलट कर जवाब दिया,”मैं नहीं पहनूँगी, तुम ही पहन लो.”
बात कहने का टोन कुछ ऐसा था कि मेरा चेहरा ना चाहते हुए भी सख्त हो गया. मुझसे नजर मिली तो झेंपते हुए आंटी हंसकर कहती है,”आजकल के बच्चे भी ना, बस अपनी मर्जी की करते हैं.”
मैंने जवाब नहीं दिया, लेकिन बस दिमाग में यही आया कि मर्जी अपनी हो सकती है, पर छोटी-छोटी बातों में बदतमीजी करने का हक कहा से ला रहें हैं ये बच्चे?
हमारे देश में (infact पूरी दुनिया में) पौराणिक काल से माता-पिता का एक टाइप पाया जाता रहा है जो अनुशासन शब्द को बड़ा महत्व देता है, और इसके लिए कंटाप-घुसा, लत्तम-जूता हर प्रकार के तरीकों का उपयोग जरूरी मानता है.
कोई भी child psychologist इनके तरीकों को गलत और extreme मानेगा. मैं भी सहमत हूँ. पर आप इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि इस प्रकार के अभिभावकों की एक सफलता यह है, कि वे अस्सी साल के उम्र में जब घसीट कर बाथरूम जाना शुरू कर देते हैं, तो भी बेटे के दिमाग में उनसे पीछा छुड़ाने का ऑप्शन भूल कर भी नहीं आता.
आप के घर में भी ऐसे उदाहरण हैं, जिनके लिये बाप बस बाप होता है, भले ही उनकी हड्डियों में जान और आवाज में कड़क खत्म हो चुकी हो.
इसके बाद इनके उलट बिल्कुल अलग प्रजाति आयी, जो अपने बच्चों के प्रति इतना warmth रखने लगी कि इनके ढाई किलोमीटर के रेडियस में आने वाला हर पड़ोसी का बच्चा जल कर मर जाये. इनका साफ़ कहना है, कि अगर बच्चा नियम से प्रतिदिन दो बार इनके सर पर चढ़ कर सूसू नहीं करेगा, तो ये खुद को अच्छा पैरेंट नहीं मानेंगे.
इस प्रजाति का सबसे प्रत्यक्ष असर यह है कि पहले बच्चा दोस्त से एक घूँसा खाता था, दो लगाता था, और फिर अगले दिन साथ खेलता था. पर अब चार साल के दो बच्चों की लड़ाई कब अगले तीन सौ साल चलने वाली दो परिवारों की पुश्तैनी लड़ाई में बदल जायेगी, कहना मुश्किल है.
समाज इतना टूट चुका है कि आप मुहल्ले के किसी के बच्चे को गलत करता देख प्यार से भी समझायेंगे, तो हो सकता है कि उसका पूरा परिवार दल-बल के साथ आप पर चढ़ाई कर दे (तुमने मेरे लाडले को कुछ कहने की हिम्मत कैसे की? कैसे? आखिर कैसे?)
हाल में ही जब चाइल्ड सायकॉलॉजी के एक कॉन्फ्रेंस में गयी थी तो वहाँ आयी एक वक्ता ने एक बात बोली, ” हर वह माता-पिता जो अपने दो बच्चों के लिये हमेशा दो डेयरी मिल्क लाते हैं, अपने भविष्य के लिए खतरा पैदा कर रहें हैं.
आज आपने उन्हें कन्डीशन किया है आपस में शेयरिंग नहीं करने के लिए, कल को वह आपके साथ भी नहीं करेगा.”
आगे उसने कहा,”अगर वो शेयर करने के लिए तैयार नहीं हैं तो आप दोनों पति-पत्नी उस चॉकलेट को खाइये और रैपर फेंकने के लिए बच्चे को थमा दीजिये, वो भी प्यार से, बिना गाली-गलौच के.”
इस सच्चाई को जांचने के लिए ज्यादा मेहनत की जरूरत नहीं है, बढ़ते वृद्धाश्रम और तिरस्कृत होते माता- पिता हर तरफ दिखेंगे.
Genration gap एक प्राकृतिक समस्या हैं और communication gap थोड़ी सांस्कृतिक, लेकिन माता-पिता को बोझ मानना और अपने स्टेट्स सिम्बल के लिए खतरा देखना सिर्फ कमीनापंथी है.
English-vinglish बहुत हद तक एक जमीनी हकीकत बयाँ करती हैं. अंग्रेजियत की बयार हमारे अंदर इतनी ज्यादा आ गयी हैं, कि नेट पर सर्फिंग ना कर पाने वाली और एस्केलेटर पर लड़खड़ा कर चढ़ने वाली माँ बच्चों को अपना इमेज बिगाड़ती हुई प्रतीत होती हैं. गाँव के मेरे दोस्त जो आज IIT पहुंच गए हैं, शरमाते हैं अपने ठेठ गंवार पिता पर.
समझ नहीं आता कि मेरी पीढ़ी इस बात को समझने के लिए तैयार क्यों नहीं हैं कि पिछले सौ सालों में जितनी तेजी से दुनिया बदली हैं, संस्कृति, और लाइफस्टाइल बदला हैं, वैसा मानव इतिहास में कभी नहीं हुआ.
आप नहीं करवा सकते विविध भारती वाली पीढ़ी से Baywatch हजम. और करवानी भी नहीं चाहिये. ये थोड़ी-बहुत बची हुई पुरानी चीजें हैं, जो हमें जड़ से जोड़े रखती हैं. उन्हें जब अपने लोग समझ आएँगे कि वो भले ही cool ना दिखे पर खूबसूरत हैं अपनी तरह.
बाकी अभिभावकों को थोड़ा सावधान तो रहना ही चाहिए कि आपका बच्चा बस “सफल” ही ना बन कर रह जाये. वरना पश्चिम के पास बहुत पैसे हैं, उधर वृद्धाश्रम तीन टाइम का बढ़िया खाना देगी और सरकार भत्ता. यहाँ बहन की शादी, बच्चे की पढ़ाई, माँ की तीर्थयात्रा, पिता के श्राद्ध के बाद, जितनी सेविंग हम मिडल क्लास की होती हैं ना, अगर उसमें लात पड़ जाए तो हम एक बुखार के इलाज का खर्चा नहीं उठा पाएंगे शायद.