सुनो, हुरियारिन !
जाते फ़ागुन में पलाश के बीज़ों को
हवाओं का अतिथि होने का आमंत्रण देना
ताकि वह आगामी फगुनाहट में सर्वप्रिय दावानल बन सके.
पलाश, अरावली पर्वत में विचरते उस मस्त मलंग
के पदचाप हैं
जिसने पर्वत के वीरान होते ललाट के लिये
शुभ गेरुए तिलक का घोल बनाया है.
शिशिर ऋतु में पर्वतों की क्यारियों में बबूल
ठूँठ होते पलाश की देह के लिये व्यथित हो
देवताओं के कानों में जिन मंत्रों को फूंकता रहता था
उनका प्रकटीकरण अब शाखाओं
के पाँव भारी होने में हैं.
वह आजकल फुनगियों में अंकस्थ हुए
रक्तिम होते पलाश की नजरें यूँ उतारता है
मानों प्रतीक्षारत ग्रीष्म-सुंदरी के आँचल में
महावर की पुड़िया बाँधी दी हो.
तमाम हुरियारिनों को गंधहीन पलाश का वरण
ईश्वरीय दूत समझकर करना है
ताकि पत्थरों में प्रत्याशाओं की खेती का कौशल
मृतप्रायः न हो सकें
और दीर्घकालिक-अंधेरी घुटन के बाद
एक कोयले के हीरा बनने की जीवटता बनी रहे.
पलाश का गर्म-सर्द जिद्दी हवाओं के मध्य
अधिक चटख होते चले जाना
मानव के लिये स्वर्णिम पाठ है कि
प्रकृति में सृजन सदैव
अथाह गहन-अनवरत पीड़ा का सुफल है.
पलाश,
एकांत में उचारे बीजमंत्रों व आँसुओं के मौन अनुभावों का प्राकट्य है
दुरूह लम्बी यात्राओं में विराम का सुकूँ है
जीवन की प्रचंड दुपहरी के ब्रह्मांड में
एक नए तारे की संभावना है
अतः, सखी!
मेरे ड्योढ़ी में कुछ पलाश के बीज बिखेर जाना.
– मंजुला बिष्ट