यादों के झरोखे से : सारा जीवन नेहरु और कांग्रेस के विरोध में खपा देने वाले डॉ लोहिया

  • मनमोहन शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार

1958 की बात है. मैं इरविन अस्पताल के बस स्टैंड पर खड़ा बस का इंतजार कर रहा था कि मुझे सड़क पर खरामा-खरामा चलते हुए समाजवादी नेता डॉ राममनोहर लोहिया नजर आए.

मई का महीना था और दिल्ली की कड़ाकेदार गर्मी जोरों पर थी. गर्मी के कारण मैं पसीना-पसीना हो रहा था.

मैंने आगे बढ़कर डॉ लोहिया को नमस्कार किया और पूछा ‘डॉक्टर साहब आप कहां जा रहे हैं?’

डॉक्टर साहब ने कहा ‘कनॉट प्लेस’. गर्मी के कारण लोहिया भी पसीना-पसीना हो रहे थे.

मैंने कहा ‘अरे आपने फटफटी क्यों नहीं ली, पैदल क्यों जा रहे हैं?’

डॉक्टर साहब ने मेरी बात काटते हुए कहा ‘अरे भाई पैसा एक नहीं है तो भला वाहन कैसे लेता’.

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उन दिनों फटफटी चलती थी. फव्वारा से कनॉट प्लेस का किराया एक आने हुआ करता था.

डॉक्टर साहब ने मुझे बताया कि वह रेलवे स्टेशन से आ रहे हैं क्योंकि उनकी जेब खाली थी इसलिए उन्हें रेलवे स्टेशन से कनॉट प्लेस तक पैदल ही यात्रा करनी पड़ रही है.

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मैं डॉक्टर साहब के साथ हो लिया और मैं कनॉट प्लेस के उस कॉफी हाउस जा पहुंचा जहां पर आज पालिका बाजार है. उन दिनों इस कॉफी हाउस में एक आने में कॉफी और दो बिस्कुट फ्री मिला करते थे.

कॉफी हाउस में कदम रखते ही डॉक्टर साहब के श्रद्धालुओं ने उन्हें घेर लिया और मैंने संसद भवन की राह ली.

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डॉक्टर साहब एक फक्कड़ व्यक्ति थे. उनकी कुल जमा-पूंजी खादी के दो जोड़े कपड़े हुआ करते थे. एक वो खुद पहनते थे और दूसरा अपने झोले में अपने साथ लिए चलते थे.

उन्होंने अपना सारा जीवन नेहरु और कांग्रेस के विरोध में लगा दिया. अपने सिद्धांतों पर वो सदा दृढ़ रहे और उनके बारे में कभी कोई समझौता नहीं किया.

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मुझे यह स्वीकार करने में लेशमात्र भी हिचकिचाहट भी नहीं कि आज भी मेरे दिल में सोशलिस्ट नेता डॉ राममनोहर लोहिया के लिए भारी सम्मान है.

वह पांच दशक तक देश की राजनीति पर छाए रहे मगर उन्होंने न तो अपना कोई घर-घाट बनाया और न ही एक पैसा बटोरा.

देशभर में उनका अपना कोई भी ठिकाना नहीं था. वह जिस नगर में जाते थे वहीं अपने किसी दोस्त के घर डेरा डाल देते थे. किसी बैंक में उनका कोई खाता नहीं था.

डॉक्टर साहब अपनी धुन में इस कदर मस्त रहते थे कि उन्हें इन बातों पर ध्यान देने की कभी फुर्सत ही नहीं मिली.

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इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि महात्मा गांधी को उनके चेलों ने राष्ट्रपिता के सिंहासन पर सुशोभित कर दिया जबकि लोहिया के चेलों ने उनकी लुटिया डुबोने में कोई कसर बाकी नहीं रखी.

डॉक्टर साहब ने राष्ट्र और भारतीय भाषाओं की सेवा पर सर्वस्व न्यौछावर कर दिया मगर उन्हें हमेशा उपेक्षा ही मिली.

भारतीय राजनीति को नई दिशा प्रदान करने में डॉक्टर साहब के योगदान को भुलाना किसी भी व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है.

अंग्रेजी और अनेक यूरोपीय भाषाओं के प्रकांड विद्वान होते हुए भी डॉक्टर लोहिया हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को उनका उचित और सम्मानजनक स्थान दिलाने के अभियान में पूरा जीवन जुटे रहे.

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उन्होंने अनेक ऐसे कार्यकर्ता तैयार किए जो गैर-हिन्दी भाषी होते हुए भी हिन्दी बोलने में गौरव का अनुभव करते थे. इनमें तमिल भाषी लंकासुंदरम, कन्नड़ भाषी जॉर्ज फर्नांडिस, उड़ीया भाषी कृष्ण पटनायक आदि के नामों का इस संबंध में उल्लेख किया जा सकता है.

संसद में नेहरु युग में अंग्रेजी का बोलबाला था. मगर लोकसभा में डॉ लोहिया के कदम रखते ही संसद के स्वरूप ने एक नई करवट ली और हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं के बोलबाले के नए युग की शुरूआत हुई. डॉ लोहिया सच्चे हिन्दी प्रेमी थे.

संसद के समाचार कवर करने वाले पुराने संवाददाताओं को देश के आम आदमी की आय के बारे में नेहरु से हुई उनकी जोरदार झड़पों की जरूर याद होगी. जब लोहिया जी ने सरकार के इस दावे की धज्जियां उड़ा दी थी कि एक औसतन भारतीय की आय सवा रुपया प्रतिदिन है. उन्होंने संसद में सिद्ध किया कि देश के औसतन नागरिक की आय मात्र चार आने है.

नेहरु को निशाना बनाने वाले लोहिया एकमात्र नेता थे. उन्होंने खुलेआम नेहरू पर यह आरोप लगाया था कि उन पर रोज सरकारी खजाने से 25 हजार रुपए का खर्चा होता है. जोकि जनता के धन की खुली लूट है. लोहिया के इस अभियान से नेहरुवादियों की रातों की नींद हराम हो गई थी.

यह डॉ लोहिया का ही दम था कि उन्होंने देशभर में अंग्रेजी की गुलामी के अवशेषों को मिटाने का जोरदार अभियान चलाया.

देश की स्वतंत्रता प्राप्ति को हालांकि तीन दशक गुजर चुके थे मगर इसके बावजूद देश की राजधानी में 48 ब्रिटिश शासकों की मूर्तियां सार्वजनिक स्थानों पर लगी हुई स्वतंत्र देश का मुंह चिढ़ा रही थी. राजधानी की 62 सड़कों के नाम विदेशी शासकों के नाम पर थे.

डॉक्टर साहब को विदेशियों की गुलामी के यह अवशेष फूटी आंख नहीं भाए. एक दशक से वह सरकार से इन विदेशी अवशेषों को मिटाने का अनुरोध कर रहे थे.

जब उनके इस अनुरोध पर किसी ने कोई ध्यान नहीं दिया तो जुझारू स्वभाव के डॉ लोहिया ने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को यह निर्देश दिया कि वह दिल्ली में जगह-जगह लगी इन विदेशी शासकों की मूर्तियों का नामोंनिशान मिटा दें.

डॉक्टर साहब के आह्वान पर पुलिस के प्रबल विरोध के बावजूद सोशलिस्ट कार्यकर्ताओं ने इन विदेशी शासकों की मूर्तियों के साथ तोड़फोड़ की गई उन्हें तारकोल से रंग दिया.

विवश होकर सरकार को इन सभी विदेशी शासकों की मूर्तियों को हटाकर किंग्सवे के कारोनेशन पार्क में पहुंचाना पड़ा.

डॉक्टर साहब के दबाव के कारण विदेशी शासकों के नाम पर रखे सड़कों के नाम बदलने पड़े. निश्चित रूप से उनका यह कदम बेहद क्रांतिकारी था.

डॉ लोहिया अनोखी जीवट के व्यक्ति थे. 1967 में लोहिया के प्रयासों से उत्तर भारत में गैर-कांग्रेसी संविद सरकारों का गठन हुआ. अमृतसर से मणिपुर तक कांग्रेसी सरकारों का नामोंनिशान मिट गया.

सबसे रोचक बात यह है कि इन संविद सरकारों में राजनीतिक दृष्टि से एक-दूसरे के घोर विरोधी जैसे जनसंघ और कम्युनिस्ट दोनों ही शामिल थे. इन दलों के अंतर्द्वंद के कारण डॉक्टर साहब का यह प्रयास विफल हो गया.

डॉ लोहिया का जब निधन हुआ तो देशभर में न तो उनका कोई अपना ठिकाना था और न ही बैंक में एक पैसा. न ही उनकी जेब से एक पैसा ही मिला इसलिए उनका अंतिम संस्कार उनके दोस्तों को करना पड़ा.

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