स्त्री का प्रेम होता है तह परतों में,
एक बार प्रेम के अधिकार के साथ
वह हंसती है,
और खारिज सा कर देती है,
दान में मिले प्रेम के कथित अधिकार को
और पूछती है देता है कौन सा धर्म,
प्रेम मौलिक अधिकार के रूप में
खड़ी होती है स्त्री अंतिम पंक्ति के अंतिम छोर पर,
अपनी एकमात्र इच्छा लिए
कहां है उसका चाहना,
साड़ियों की प्लीट्स के साथ गाने गुनगुनाने
से कहीं अधिक!
वह बस चाहती है सिंदूर की गोलाई खुद तय करना,
अपने पैरों के आलता से घर मे रंग भरना!
प्रेम करती स्त्री साथी को करते करते प्रेम,
खुद को करती है सम्पूर्ण
प्रेम में मग्न स्त्री चाहती है, बस प्रेम करना,
हर खांचे से परे, हर अपेक्षा से परे
रिश्तों की सहजता और असहजता से परे
वह बस अपने लिए चाहती है प्रवाहित से स्थिर क्षण,
वह समेटना चाहती है हवाओं की आवारगी को,
और बादलों की गति,
प्रेम करती स्त्री चाहती है बस हथेलियों पर नाम
वह इन मामूली इच्छाओं के साथ गढ़ती है
गैरमामूली प्रेम,
मगर उसके प्रेम को ठहराकर मामूली,
रच जाता एक वितृष्णा का संसार,
स्त्री जानती है निथारना क्षणों को,
वह बचाना चाहती है खुद को,
जितना बचाएगी स्त्री खुद को,
उतना ही बचेगा प्रेम,
क्योंकि स्त्री के बिना प्रेम की कल्पना ही व्यर्थ है,
सुनो,
स्त्री हथेलियों से छिटक देगी फालतू रेखाएं,
और बचा लेगी प्रेम…
– सोनाली मिश्र