स्त्रियाँ होती हैं एक
चलता फिरता पुस्तकालय
जिसमें होतीं हैं जन्म से लेकर,
बचपन, युवावस्था, अधेड़ और
मृत्युपर्यन्त तक की, तमाम किताबें…
लिखता है हर पुरुष उन्हें अपनी,
रुचि अनुसार भिन्न भिन्न अंदाज़ में
अलग अलग लेखनी और रोशनाई से…
वो स्वयं नहीं लिखती कभी,
लिखी जातीं हैं हर युग में…
और दर्ज होती हैं बन
कहानी, कविता हँसी,
प्रेम, विरह की जस की तस…
बड़े करीने से, रखी जाती हैं
अलग अलग सेल्फ में तारीख,
समय और उम्र के अनुसार…
छुपा रखती हैं उसकी चाभी,
छाती के भीतर ही कहीं,
एक कमरे में, जहाँ कोई
नहीं पहुँच पाया आजतक…
भूल भुलैया है उसका रास्ता,
ठीक वैसा जैसा, बाल पुस्तकों
में आता था वो खेल,
“सही रास्ता खोजो”…
फ़ँसे रहोगे, देर तक
फिर वहीं आ पहुँचोगे,
चले थे जहाँ से…
जब होती हैं वे नितांत अकेली,
भटक जाती हैं रिश्तों के जंगल में
तब खुद बखुद,
निकल आती है वो चाभी बाहर,
मस्तिष्क के सेंसर से स्कैन हो,
निकल आता है सेल्फ से,
“किताब का वो पन्ना”
जिसमें छपे हैं, नील नीले निशान,
दर्द के, जिनसे छलछला जाता है
लहू आज भी उतनी ही टीस लिए…
एक एक अक्षर पर बहा,
सौ सौ आँसू अधमिटा कर,
झोंक देती है, अतीत की
आग में खुद को…
उस आंच में तप तप के
बनाती है खुद को कंचन…
निखरती है, परिपक्वता की
भट्टी में पक माटी के घड़े सा…
उनकी देह के हरेक अंग,
पर चित्रित है कई कई प्रसंग…
नहीं देख पाओगे, क्योंकि
नित नई कहानी रचते हो
और पोंछ देते हो,
उसे बिछी चादर से…
ठीक वैसे जैसे स्लेट से पोंछ
देते हैं किसी पुराने चित्र को,
गीले कपड़े से, नए चित्र
उकेरने के लिये…
क्योंकि खत्म हो जाती है,
तुम्हारी कथा-व्यथा
उसकी देह के एक पड़ाव से
दूसरे पड़ाव तक पहुँचते ही,
जो उसका आरंभ है…
सुनो, आज बिछाने से पहले,
उलटना पलटना पन्ने उसके,
शायद पढ़ पाओ, आदि से
अंतिम पड़ाव तक उसे…
– पूजा चौधरी