चाहे तुम रोज़ ही बात ना करो
वैसे मैं चाहती हूं कि,
तुम रोज़ आकर
दो शब्द कह दिया करो,
तुम्हारे इंतज़ार में
मेरा पूरा व्यक्तित्व ही नेत्र बन गया है
किसी भी दिन आकर देख लो…
क्या तुम्हें मेरे द्वार पर रक्ताभ आभा से ढंका
बोगनवेलिया नहीं दिखा या,
हिम के मलमली वस्त्र
सदृश श्वेत वस्त्र धारे हरसिंगार,
मैंने कहा – फूलों से आच्छादित
बोगान और हरसिंगार से,
व्यर्थ है इतनी आकुलता
बरसा दो इन पुष्पों को कि
नव पल्लव, नव पुष्पों को जगह मिले…
पर तुम्हारा रास्ता ताकते वह बोले,
“हम हैं प्रसाधित- वह आने वाले हैं ”
तुम्हारे आते ही नव पल्लव हवा संग नृत्य करेंगे
हरसिंगार, बेलिया अपने पुष्प झरेंगे
कुछ नए स्वप्न इन नैनों में भी तिरेंगे
और सुनो तो,
यह विंड चाइम भी सांस रोके खड़ा है
तुम्हारा पथ निहार कि ,
कहीं हवा उसमें छिपी रागनी को छेड़ ना दे;
तुम्हारे आते ही वह भी ले एक निःविश्वास
अच्छा चलो,
मेरे लिए नहीं तो,
बोझ से दोहरी, मिलन को आतुर
लताओं की विहृवलता के लिए ही आ जाओ
मेरे लिए मत आओ
वैसे मैं चाहती हूं कि,
तुम मेरे लिए ही आए आओ…
– यामिनी गुप्ता