13 साल की लड़की अल्हड़ नासमझ; गर्मियों की छुट्टियां गांव में गुज़रती थी, आम के बागीचों में झूला झूलते. चुरा कर आम खाते हुए. तालाब में तैरना सीखते हुए.
साल भर माँ केवल पढ़ाई करवाती और दो महिने सुगढ़ता के पाठ होते थे सुबह पाँच बजे उठकर कुलदेवी के घर को लीपना पूजा के बर्तन को इतना चमकाना की चेहरा दिखने लगे.
मानो चमकते बर्तन की तरह भाग्य भी चमकने वाला हो…
चार पाँच दिनों का कौतूहल छठवें दिन तक दम तोड़ देता था उसे तो छत पर शाम को अपनी दादी को दीप जलाते देखना पसंद था. खपड़ेल रसोईघर की छत से आने वाला चूल्हे के धुंए की गंध, धुंधली सी शाम और अपने दोस्तों के साथ अंताक्षरी खेलना.
आह! कितना सुखद था ये सब…
एक दिन माँ ने बेटी की स्कर्ट पर दाग देखा वो झट से समझ गई… माँ का लहज़ा अचानक से बदल गया. बिटिया कुछ समझ नहीं पा रही थी.
“क्या है ये, क्या है दिखाओ”
“कब अकल आएगी तुमको”
“शांत होकर बैठ नहीं सकती आज से ये घूमना फिरना बंद. कहीं निकलोगी नहीं घर से, मुझसे बुरा कोई न होगा ”
कुछ पैड से संबंधित हिदायतें देकर, माँ ने एक बात बहुत कठोरता से कही –
” ये बात किसी को नहीं कहना अपनी बुआ लोगों को भी नहीं, लड़कियों को भी नहीं”
माँ के मन का डर चिंता हिकारत सब एक साथ चेहरे पर दिख रहा था उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि अब इतनी चंचल और अल्हड़ भोली, अपनी बेटी को कैसे सम्भाले मन ही मन बड़बड़ाती हुई चली गई..
“इतनी जल्दी ये कैसे हो गया कुछ दिनों के बाद होना चाहिए …… ये एक नया झंझट है”
ऐसी प्रतिक्रिया माँ से हर माह…
जब केवल ‘चुपचुप’ कह कर शांत कर दिया जाता था पेनकिलर खिलाकर दर्द दबा दिए जाते थे और स्कूल से लौटते वक्त जैकेट से दाग छिपा लिए जाते थे लड़कों का दांत निपोरना तकलीफ देह था बहुत….
माँ की प्रतिक्रिया और चिंता भी आपेक्षित नहीं थी…
तो लाल इश्क कहने से कुछ नहीं होगा और अपने गंदे पैड के साथ सेल्फी लेने से भी क्योंकि वो अनहायजिनिक है. और क्रांति करने के लिए बिन पैड के ही दागदार कपड़ों से ऑफिस जाना मूर्खता है क्योंकि कुछ ही देर में मक्खियों से आप लद जाएंगे.
कपड़ों पर लगे ये दाग आसानी से नहीं छूटा करते इसलिए दाग कम लगें उसका प्रयास करना चाहिए.
बदलना है तो सोच बदलना होगा ………
बच्चियाँ माहवारी के समय कैसे अपना ख्याल रखें हायजीन का ध्यान रखें, सुरक्षित महसूस करें ये हमारा कर्तव्य है.
– दीप्ति झा