टूटना बेहद ज़रूरी है उठने के लिए, धोनी जैसा निर्मोही बनने के लिए

धोनी हर मैच में अपनी अद्वितीय फिटनेस से सभी को हैरान-परेशान करते रहते हैं. पिछले साल राजकोट में न्यूजीलैंड के साथ हुए एक टी20 मैच में स्टंप्स आउट होने से बचने के प्रयास में अपनी दोनों टांगो को किताब सा खोलकर धोनी ने बताया कि उनकी फिटनेस उम्र की मोहताज नहीं.

इस उम्र में ऐसी फिटनेस तो इस फील्ड के दादामुनि जोंटी रोड्स की भी नहीं रही. आज भी वो अपने से दस-पंद्रह साल छोटे खिलाड़ियों से न केवल तेज भाग रहा है बल्कि उसके रिफ्लेक्शन भी और शार्प होते जा रहे है.

धोनी पुरानी बीयर और पुराना चावल बन चुका है. पिछले साल धोनी पर आई फिल्म देखनी ही थी. इंतजार था. हॉल में धोनी धोनी चिल्लाने वालो में से एक में भी था. वैसे पसंद शुरू से सचिन था और लगता था कि जिस दिन ये खेल छोड़ेगा, रो दूंगा पर हो गया उल्टा.

सचिन की एक्शन-इमोशन-ड्रामा वाली फेयरवेल के बावजूद केवल दुखी हुआ पर रोया नहीं. ये मन रोया धोनी के मौन संन्यास पर. उस दिन मौन और सौम्यता का जादू सर चढ़ के बोला. पांच दिन तक व्हाट्स एप पर धोनी की फोटो लगा स्टेट्स लिखा था- अभी ना जाओ छोड़ के, कि दिल अभी भरा नही.

पर उसे किसकी सुननी थी जो मेरी सुनता. ये कब साला चुपचाप घुसपैठ कर गया, पता ही नहीं चला. धोनी-अनटोल्ड स्टोरी को केवल धोनी के लिए प्रेम और पागलपन के लिये देखना हो तो ये फिल्म उम्दा थी, बेहतरीन थी पर मेरी तरह धोनीप्रेमिल होने के बाद भी जिसने दिमाग लगाया उसे ज्यादा मजा नहीं आया.

धोनी शायद नीरज पांडे की अब तक की सबसे कमजोर फिल्म थी. ये फिल्म उनके मिजाज के अनुरूप थी भी नही. फिल्म को लेकर उनका ट्रीटमेंट भी बेहद साधारण था. इसे साधारण बनाना था या साधारण बन गया, ये भी एक विषय है. बॉयोपिक बनाना वैसे कभी आसान नहीं होता वो भी तब जब आपको कल्पना की उड़ान उड़ाने का नहीं मिलने वाला हो.

नीरज पांडे ने धोनी को और उस पर लिखी स्क्रिप्ट को बहुत सतही रूप में लिखा है. धोनी का बचपन और उसकी गैर जरूरी लाइफ सेट करने में काफी फिल्म बर्बाद की. असमंजस और संघर्ष हर स्पोर्ट्समैन की लाइफ में होता है. इस साधारण संघर्ष ने धोनी को धोनी नहीं बनाया.

धोनी का असली संघर्ष कुछ और था. उसकी उम्र के युवराज, कैफ, दिनेश मोंगिया का टीम में होना और उसका इन बेहद जरूरी दिनों में टीसी की नौकरी करना. एक मध्यमवर्गीय पिता की इच्छा के लिए जीवन सिक्योर करना या खुद के सपनों की ओर देखने का असमंजस ही फिल्म का मूल था.

फिल्म का ये हिस्सा ही फिल्म का और धोनी के व्यक्तिगत जीवन का बेस्ट पार्ट है. धोनी का एकांत भी धोनी के व्यक्तित्व का खास हिस्सा है. हर टूटन पर उसका एकांत में जाना और खुद में समाना बेहद अपीलिंग है. धोनी में ना तो सचिन, द्रविड़ और विराट जैसी शास्त्रीय प्रतिभा मौजूद थी और ना विकेटकीपर के तौर पर वो असाधारण था. असाधारण है उसकी मजबूत मानसिक दृढ़ता और हर स्थिति में सहज रहने की जीवटता. फिल्म उसके व्यक्तित्व के इस हिस्से को जब-जब मुखर करती है, आनंद देती है.

अच्छे किरदार की समस्या होती है कि आप इन्हें देखकर इससे दूर नहीं भाग सकते. आनंद लेकर फ्री नहीं हो सकते. ये आपके दिलो दिमाग में घूमता रहता है कुछ दिन तक, कई बार बहुत दिनों तक. आपको बार-बार खुश करने, दुःखी करने, सोचने-विचारने, खुद से जोड़ने को, लगातार.

फिल्म का वो हिस्सा अब भी साथ है जब टीसी की नौकरी करते परेशान धोनी स्टेशन की बेंच पर अपने बॉस से दिल की बात कहता है. उसकी समस्या हम जैसे बहुतो की है. हम लाइफ में करना कुछ और चाहते हैं और कर कुछ और रहे होते हैं.

बहुत कम होते हैं जो एक्चुअल में वही करते हैं जो उन्हें करना होता है. बॉस का जवाब भी प्यारा है- लाइफ बाउंसर मारे तो डक करके बचो और जब फुलटॉस आये तो घुमा के मारो.

दोस्तों के साथ क्रिकेट देखते अचानक उठकर रसोई में जाकर चाय बनाने के एक दृश्य ने वो कह दिया जो डायलॉग ने नहीं कहा. रूटीन लाइफ की आपाधापी में किसी के सपनों का सुसाइड करना आम है. लाइफ की इस क्रूरता पर बात होनी चाहिए. धोनी का बेंच पर अकेले बारिश में बैठने का दृश्य फिल्म का सार है, बाकी सब रचा और कहा सबने देखा-जाना है.

धोनी ने बताया कि असफल होना, रिजेक्ट होना, टूटना भी जीवन का ज़रूरी एक भाव है. इसका आनंद भी ज़रूरी है. इस आनंद से निकला आदमी ही धोनी जितना निर्मोही हो सकता है.

कहानी जब बॉयोपिक हो तो फिर व्यक्तिगत कहानी के मायने भी सार्वजनिक हो जाते हैं. व्यक्तिगत तहें बार-बार सार्वजनिक बन आपके भीतर दस्तक देती रहती हैं. इससे पहले भी दशरथ माझी के बायोपिक ने हिलाया था. पिंक ने भी, जो बायोपिक नहीं होकर भी देश की हर उस लड़की का बायोपिक है, उसके भीतर का मोनोलॉग है, जो अपने तय किये व्याकरण के साथ इस थोपे हुए समाजवाद में जीना चाहती है.

सिनेमा कई बार चमत्कार सा हमारे सामने आता है तो बहुत बार ये भी होता है कि ये आइने सा, हमारी ही जिंदगी बनकर हमसे मिलता है. माझी और धोनी इसी मायने में खास है. ये हमारे सपनों, हमारी असफलताओं, हमारी ज़िद, हमारे हौसलों, हमारे एकांत, हमारी उम्मीदों और हमारी पीड़ाओं की कहानी है.

दोनों ही के व्यक्तिगत राग-द्वेष आगे चलकर सार्वजनिक कपाट खोलते हैं. दोनों किरदारों की कहानी आम से खास बनने की है. धोनी की कहानी सपने को हकीकत में बदलने की ज़िद की कहानी है तो माझी की कहानी हकीकत को सपने की तरह देखने की कहानी है. अजीब संयोग है कि दोनों ही किरदार बिहार (धोनी का झारखंड उस समय का बिहार) की पृष्ठभूमि से हमारे सामने आये हैं.

धोनी चुपचाप टेस्ट मैच से संन्यास की घोषणा कर देते हैं, बगैर किसी धूम धड़ाके और शोर के. लगता है कि किसी दिन अचानक ही चुपके से बगैर किसी स्क्रिप्ट को रचे वनडे और टी20 को भी बाय बाय बोल देंगे. उसे हीरोपंती आती ही नहीं है. उसे पर्दे के पीछे रहना आता है. उसकी संतुष्टि का दायरा बहुत विशाल और गहरा है. ये संतुष्टी हर तमगे और वाहवाही से दूर है.

धोनी के बारे में क्रिकेट की एक घटना और मूव सभी को आज तक याद है. 2011 के वर्ल्ड कप फाइनल में रन चेस करते हुए लगभग 150 के स्कोर पर जब विराट के रूप में तीसरा विकेट भारत खोता है तो इन फॉर्म युवी की जगह मैदान पर अप्रत्याशित रूप से धोनी खुद उतरता है.

उस युवी की जगह जो उस वर्ल्ड कप में अपने उतराव से पहले का अभूतपूर्व शिखर लिख रहा था. धोनी पूरे वर्ल्ड कप में डांवाडोल था, विकेटकीपिंग और बेटिंग दोनों से. धोनी आता है और हार की तरफ बढ़ते मैच को छीनकर लाता है. विजयी छक्का लगा कर एक अमिट याद, एक दिलकश हँसी और एक कभी न भूलने वाला लम्हा हम भारतीयों को देता है और अपने मिजाज के अनुसार पीछे मुड़कर चुपचाप स्टंप उठाने लग जाता है.

ये मिजाज़ और तेवर ही धोनी को धोनी बनाता है. निर्मोही धोनी. भगवान की स्क्रिप्ट भी लिखी होती है. सचिन सचिन ही पैदा होते हैं. नियति महानता का सर्वनाम कइयों के साथ लाती है तभी सब कुछ स्क्रिप्ट सा होता जाता है. 16 साल की उम्र से खेलना शुरू कर दशकों तक राज करना पर दूसरी ओर धोनी को धोनी बनने में जोर आता है. धोनी बताता है कि असफलता और रिजेक्शन बुरा नहीं, इसका होना भी ज़रूरी है.

टूटना बेहद ज़रूरी है उठने के लिए. आने वाली सफलता में धोनी जैसा निर्मोही बनने के लिए.

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