ज़्यादा पीछे न भी जायें तो भी इस बात के प्रमाण मौजूद हैं कि भारत के स्वाधीनता आन्दोलन के समय से आज तक अलग-अलग वक्तों और मौकों पर मुस्लिम धर्मगुरुओं, शायरों, राजनेताओं और बादशाहों ने गौहत्या खिलाफ आवाजें उठाई हैं और पूर्ण गौ-हत्या बंदी की बात कही है.
बहादुर शाह जफ़र द्वारा गौहत्यारे के लिये मृत्युदंड का प्रावधान किया था ये बात तो सबको पता है पर इसके अलावा भी सर सैयद, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जैसे मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने गोहत्या बंदी की मांग का समर्थन किया था.
जब देश में खिलाफत आन्दोलन का ज़हर फैला था तब अब्दुल बारी जैसे मुस्लिम विद्वान् ने कहा था कि मैं एक मौलवी होने की हैसियत से ये बात कह रहा हूँ कि इस्लाम में कहीं भी गौहत्या अनिवार्य नहीं है.
उसी दौर में प्रख्यात शायर अकबर इलाहाबादी ने भी मुस्लिमों से गौहत्या की ज़िद छोड़ने को कहा.
अभी करीब एक दशक पूर्व दारूल-उलूम देवबंद ने तो बाकायदा ये फतवा दिया था कि इस्लाम में यूं तो बकरीद पे गोकशी मुबाह (ऑप्शनल) है पर चूँकि इससे हमारे हिन्दू भाइयों का दिल दुखता है लिहाजा हमें इससे परहेज़ करना चाहिये.
आश्चर्य की बात ये है कि उनके इस फतवे का इस्लाम के लगभग सभी बड़े फिरकों ने समर्थन किया.
जब देश में अखलाक प्रकरण चल रहा था उस समय आज़म खान और बुखारी जैसे कट्टरपंथी नेताओं ने भी ये बात कही थी कि सरकार गौहत्या के विरुद्ध क़ानून बनाये तो हमें कोई आपत्ति नहीं है.
जमीयत-उलेमा-ए-हिन्द के मौलाना असद मदनी तथा ऑल इंडिया जमीयतुल कुरैश के अध्यक्ष ने गौहत्या बंदी संबंधी एक प्रस्ताव भी केंद्र सरकार को भेजा था जिसे तत्कालीन सरकार ने ठंडे बस्ते में डाल दिया था.
इसी दौरान मुस्लिम राष्ट्रीय मंच ने गौहत्या के विरोध में मुस्लिम समाज के बीच अभियान चला कर साढ़े दस लाख हस्ताक्षर जमा किये और उसे केंद्र-सरकार और राष्ट्रपति को सौंपा.
लखनऊ से निकलने वाले एक साप्ताहिक अखबार दास्तान-ए-अवध के संपादक अब्दुल वहीद भी अपने अखबार से माध्यम से गौहत्या के खिलाफ अपने समाज को लगातार जगा रहे हैं.
बाबा हाशमी मियां और उत्तराखंड के पूर्व राज्यपाल अज़ीज़ कुरैशी की भी गो-संरक्षण में बेहद दिलचस्पी है, ये दोनों वो लोग हैं जो गौ-रक्षा के लिये हर मंच से अपनी आवाज़ बुलंद करते रहते हैं.
अभी जब देश में अखलाक़ का मामला उठा था तब भी बुखारी से लेकर ओवैसी और आज़म खान तक ने कहा था कि ये लोग (भाजपा) गोरक्षा पर कानून लायें हमें उससे कोई दिक्कत नहीं है.
फैज़ खान नाम के एक युवा तो गौरक्षा के लिये जनजागरण करते हुये लद्दाख से कन्याकुमारी तक पदयात्रा कर रहे हैं और उन्हें मुस्लिम समाज से भी समर्थन मिल रहा है.
यानि कुल मिलाकर मामला ये है कि देश का लगभग सारा मुस्लिम समाज गौहत्या के खिलाफ बनने वाले किसी भी कठोर कानून के खिलाफ़ नहीं है और ये बात आज पावरफुल हो चुके कथित गो-पुत्रों को भी पता है.
जब ये बात उन्हें पता है इसके बावजूद गौहत्या के खिलाफ कोई कठोर कानून नहीं बनाना क्या ये साबित नहीं करता कि गौ-संरक्षण में इनकी कोई दिलचस्पी ही नहीं है?
इनको गौहत्या से, गौ-माता के कटने से कोई पीड़ा ही नहीं होती? इनके लिये गौ-रक्षा का विषय भी राम-मंदिर और 370 की तरह कभी न खत्म होने वाले चुनावी चोंचले हैं?
या फिर विषय ये है कि इनकी कथित ‘विकासोन्मुखी अर्थव्यवस्था’ गऊ-माता के मांस निर्यात पर अवलंबित है? या फिर इनका कोई अपना कहीं अल-कबीर गौ-वधशाला वगैरह में लाभार्थी है?
कल जब डॉक्टर स्वामी राज्यसभा में इस मसले पर बिल लेकर आये तो सबके सब अपने बिल में दुबक गये और इनका कोई भी प्रवक्ता इस पर कुछ नहीं बोला मानो राम मंदिर की तरह गाय के मसले पर भी इनको सांप सूंघ जाता है.
सवाल कई हैं, जवाब एक भी नहीं. गोहत्या बंदी कानून नहीं ला सकते तो माफी मांग लीजिये देश से पर भगवान के लिये कानूनी बाध्यता या राज्यसभा में बहुमत के बहाने न बनाइये क्योंकि हमें पता है जब राज्यसभा में भी आप बहुमत में आ जाओगे तब आप लोकसभा में दो-तिहाई बहुमत पाने के बाद कानून बनाने की बात करोगे या फिर आपके पास कुछ और बहाने होंगें जिसके लिये आप मशहूर हैं.
आपके आने के बाद आपके ही कुछ लोग कहा करते थे कि ‘गाय तो चौदह सौ साल से कट रही है तो दो-तीन साल और सही’. ठीक है, हमने पिछले चार साल अपनी गऊ माता का क्रंदन सुना पर अब नहीं सुन सकते.
और हाँ, जो लोग गौ-रक्षा के लिये कुछ कर रहें हैं उनके लिये कम से कम “गुंडा” और फर्ज़ी जैसे शब्द प्रयोग न करें क्योंकि “फर्जी गो-रक्षक” तो अब आप भी हैं देश की नज़र में.
आपके ट्विटर सेनापतियों मसलन ‘गौरव प्रधानों’ की चिंता वाजिब है. उनके भीख मांगते और रावणराज आने की धमकी देते tweets, हो सकता है आपको दुबारा सत्ता में तो ले आएं पर गौ माता की आह आपको कहीं का नहीं छोड़ेगी… याद रखिये.