नवल गीत : मैं जानता हूं कि तू ग़ैर है मगर यूं ही…

साहिर का लिखा ‘कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है’ हिन्दी सिनेमा के सबसे अप्रतिम गीतों में से एक है. हम बूढे होते जा रहे हैं और समय की छाती पर गढ़ा ये गीत आज भी कायम है.

ये समय की करवट से निकल कर अब तक भाग रहा चिर युवा गीत है. हिन्दी सिनेमा के लिये ये गीत सच में बडी घटना थी. इसे हम सब ने गर्मी में छत पर लेटे उनींदी रातो में आसमान पर टकटकी लगाये रेडियो पर अमीन सियानी की कंमेट्री के बीच, दोस्तो की अंताक्षरी में, स्कूल-कॉलेज की पिकनिक बस में, बाइक चलाते हुए इयरफोन में, शादी में, ब्रेकअप के मातम में सब में सुना है.

ये गीत अपने आप में भरा पूरा संसार है. सच है कि अधूरा प्यार हम भारतीयों की दुखती नस है. जितनी दबाते है, उतना ही दुख देती है और लोग मानते है कि ये अधूरे प्यार को स्वर देता सिरमौर गीत है जबकि ये गीत साहिर की गीतकार के तौर पर की गई एक कलाकारी की वजह से भी जानने लायक है.

दरअसल पूरे चार मिनिट इक्कीस सैकिण्ड के इस गीत में तीन मिनिट अठावन सैकण्ड पर इसकी अंतिम पंक्ति गाने में आती है- मैं जानता हूं कि तू गैर है मगर यूं ही. इस लाइन के गाने में आने से ठीक पहले तक ये गीत आत्मा में धंस चुके प्रेम का मासूम स्वर है.

इसमें कामनाओं की ओर मुंह किये युगल का प्रेमिल संसार है. मनोरथों का गीत है. ये प्रेम के उन महान क्षणों का गीत है जिसके लिये दुनिया भर के कवियों ने अनेक प्रतिमान रचे. रोमांस की तितलियां, ख्वाबो की रूबाईयां, यूरोपियन कथाओं की बर्फ गिराती सर्दियो में जलते अलाव सा.

इतना मीठा प्रेम, सुकून से भरा, जिसमें आराम है, तसल्ली है, पाने से ज्यादा चाहना पर ज़ोर है. पहाड़ी राग ज़ाहिर तौर पर वैसे ही इतनी मीठी होती है तिस पर लता के कलेजाचीर क्लींशें सुर और मुकेश के अतृप्त कामनाओं से भरा उदास कंठ इसे एक नया रंग देते हैं.

कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है कि जैसे तुझको बनाया गया है मेरे लिये/ तू अब से पहले सितारों में बस रही थी कहीं/ तुझे जमीं पर बुलाया गया है मेरे लिये.

ये मिलन गीत ही होता अगर ये मारक लाइन अनूठे क्लाईमैक्स की तरह गीत में बाहर नहीं आती.

कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है/ कि जैसे तू मुझे चाहेगी उम्र भर यूं ही/ उठेगी मेरी तरफ प्यार की नजर यूं ही

और अचानक…..

मैं जानता हूं कि तू ग़ैर है मगर यूं ही…….

मात्र छ: सैकण्ड की एक पंक्ति से ही ये गीत रोमांस की अपनी खोल उतार कर विरह, अधूरेपन, अतृप्त आकांक्षाओं और गहरी टीस का गीत बन जाता है. जिस इंटेनसिटी और विश्वास के साथ प्रेम को गीत में खड़ा किया गया है, वो अब अपने क्लाईमैक्स में सपने की तरह धता बता अब अपने नये रंग में हाजिर हो उठता है.

आप सोच तक ना पाओ कि इस गीत में गहरे प्रेम से उपजा अनुराग ज्यादा मुखर है या फिर विरह में अतीत के प्रेम को खोजता-तड़पता मन. जीवन में प्यार का आगमन और प्रस्थान भी शायद इतना अचानक ही होता है. इस अचानक का होना और उससे चौंकना गहरे प्रेम में निहित है. साहिर की जादूगरी उफान पर है. ऐसी रचनात्मकता पर ही दिल कहता है – आप जादू नहीं, जानेमन हो.

साहिर हिन्दी सिनेमा के सबसे दिलकश और अकड़बाज गीतकार थे जिसने अपने सामने कभी लता तक को कुछ ना समझा. फीस की शर्त ये कि उसे संगीतकार से एक रूपया ज्यादा मेहनताना दिया जाये. उनके गीतों को संगीत कौन देगा, इस तक में दखल.

साहिर को प्रतिभा के साथ साथ ठसक भी अतिरेक में मिली थी. साहिर सन उन्नीस सौ अड़ताचालीस में आई अपनी पहली नज़्मों की किताब ‘तल्खियां’ में ही ये जादुई गीत लिख चुके थे. उसी ‘तल्खियां’ में जिसमें से गुरूदत ने भी प्यासा के लिये साहिर की नज़्में ली.

साहिर ज़्यादातर उर्दू में लिखते थे तो ज़ाहिर सी बात है कि ये गीत नज़्म के रूप में थोड़ा अलग था जिसका हिन्दी दर्शकों की सहूलियत के लिये हल्का वर्जन भी फिल्म में अमिताभ बोलते हैं. इस फिल्म के लिये यश चोपड़ा लक्ष्मी प्यारे से बात कर चुके थे पर साहिर ने साफ मना कर दिया. बोलें, मुझे ऐसा संगीतकार चाहिएं जो शायरी और नज़्मों को समझने वाला हो और इस तरह खय्याम की एंट्री यश चोपड़ा के सिनेमा में हुई.

इस गीत को कंपोज़ करना लिखने से ज्यादा मुश्किल था. खय्याम को साधारण गीत नहीं, एक गूढ़ लिखी नज़्म को कंपोज़ करना था. उस समय के संगीत के हिसाब से इसमें तय मीटर में आने वाली राईम भी नहीं थी, माने हर लाइन के अंतिम शब्द से जुड़ता दूसरी लाइन का अंतिम शब्द.

जैसे सुन साहिब सुन- प्यार की धुन, मैंने तुझे चुन लिया, तू भी मुझे चुन. यहां साहिर ने मीटर वीटर को गोली मारकर अपनी रवानगी में कुछ लिखा है जिसे खय्याम को कंपोज़ करना था पर खय्याम मुश्किल पिचों के बेहतरीन बेट्समैन थे. उन्होंने अद्भुत लिखे गीतों पर हमेशा अपना वर्चस्व रखते हुए उससे भी ज़्यादा अद्भुत संगीत रचा. सबसे कम लाइमलाइट में आये हिन्दी फिल्मों के सबसे गुणी संगीतकार.

कभी कभी फिल्म अधूरे प्यार की दास्तान थी. कहा तो ये भी गया कि ये साहिर की कहानी थी. पर साहिर की कहानी ज़ाहिर तौर पर कभी दर्ज़ हुई ही नहीं तो परदें पर क्या आती. प्यार को परोसने का सलीका साहिर में था ही नहीं. वो सब कुछ अपने में समाये चलता रहा और फिर एक दिन चला गया.

फिल्म में अमिताभ जिसे साहिर का पात्र माना गया, प्रेम नहीं मिलने पर कविताएं लिखना बन्द कर देता है जबकि भारतीय मनोविज्ञान में तो प्रेम और प्रेम की गहरी चोट आपसे यादगार सृजन कराती है पर शायद तय कुछ नहीं. प्रेम का खत्म होना इंसान के जीवन में कुछ भी रिएक्शन ला सकता है. प्रेम खत्म होने के बाद प्रेमियों की क्या मनोदशा होती होगी, ये भी एक गहरा मनोविज्ञान है.

कइयों के लिये प्रेम की जगह घृणा ले चुकी होती होगी. कई संवर जाते होंगे तो कुछ बिखर जाते होंगे. वैसे आज के समय मे प्रेम का पूरी तरह से खत्म होना प्रेक्टिकल नहीं दिखता. आपका भूतपूर्व प्रेम फेसबुक की पोस्ट और व्हाट्स एप की हेलो में घूमता फिरता रहता है. पूरा खत्म होना ज़रा मुश्किल है. यहां मनोहर श्याम जोशी की अपने उपन्यास कसप में लिखी पंक्तियां बहुत प्यारी है.

“एक शास्त्रीय आपति ये भी है कि जो प्रेमी रह चुके हैं क्या वो साझीदार मित्र रह सकते हैं. क्या प्रेम स्वर मंद्र कर मैत्री सप्तक में लाया जा सकता है. प्रेम वैसी सयाने लोगों द्वारा ठहराई हुई चीज़ नहीं है. वो तो विवाह है जो इस तरह ठहराया जाता है. ”

ये विरोधाभास भी क्या कम दिलकश है कि हम जिस समय, काल और स्थितियों में है वो प्रेक्टिकल होने का है और ये प्रेम जब मिलता है तो बहुत गहरी परतों के साथ आपके सामने प्रस्तुत होता है. संतुलन की लड़ाई जारी रहती है.

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