इंद्र वैदिक काल के सबसे महत्वपूर्ण देवता थे. शक्तिशाली, पराक्रमी, योद्धा और विजेता. आर्यों के रक्षक.
वेद में, यज्ञ में, इंद्र का ही आह्वान होता, उनकी ही स्तुति की जाती, सर्वाधिक श्लोक-मन्त्र अर्थात गुणगान इंद्र के लिए ही हैं.
यही इंद्र पौराणिक कथा आते-आते अपनी गद्दी के लिए चिंतित रहने लगा. सदा भयभीत.
और तो और भयभीत भी किससे, असुरों से कम तपस्वियों से अधिक. किसी के तप करते ही सशंकित हो जाता. जरा सी हवा के झोकों से भी इसका सिंहासन डोलने लगता.
आज हम सब इसे पढ़कर इसका मजाक उड़ाते हैं.
मगर सच कहें तो हम खुद मजाक के पात्र बन चुके हैं.
कोई पूछेगा, कैसे?
हम इसके पीछे के सन्देश और कथाक्रम को समझ ही नहीं पा रहे. और जिस तरह से बिना पढ़े मनुस्मृति को जलाया जाता है ठीक वही काम इंद्र के साथ करके अपने को अति बुद्धिमान ठहरा रहे हैं. जबकि हम महामूर्ख हैं.
क्या विश्व के किसी साहित्य में ऐसा उदाहण मिलेगा, जिसमें समाज का महानायक कुछ समय बाद धीरे-धीरे खलनायक बन कर कालांतर में जनमानस के मन मष्तिष्क में स्थायी रूप से हंसी का पात्र बन जाए?
नहीं… मिल भी नहीं सकता, क्योंकि किसी और संस्कृति के साहित्य के पास इतना लंबा और प्राचीन इतिहास नहीं. आज के सभी अन्य मजहबों के धार्मिक चरित्र दो-ढाई हजार साल में सिमट जाएंगे.
जबकि सनातन का काल आदिकाल से चला आ रहा है. और इंद्र के चरित्र का पतन, यह घटनाक्रम, और इसके पीछे छिपा सन्देश, हमारी समृद्ध साहित्य और जीवन दर्शन का एक उत्कृष्ट प्रमाण है.
यहां, इंद्र कोई और नहीं, हम ही हैं.
यह प्रतीक है, यह बतलाने के लिए कि किस युग में हम कैसे थे.
वैदिक काल में तपस्वी थे, इन्द्रियजयी थे, चरित्रवान थे, संस्कारवान थे. यह वो काल था जब हम विश्वगुरु थे. हम आर्य थे. हम श्रेष्ठ थे.
पौराणिक काल का इंद्र भी हम ही हैं. अर्थात हम तब तक भोगी, विलासिता के जीवन के अभ्यस्त हो चुके थे, हम इन्द्रियों के वश में आ चुके थे.
सीधे-सीधे कहना हो तो कहा जा सकता है कि कमज़ोर होने लगे थे. इतने कि असुर से नहीं अपनों में से ही जो असामान्य तपस्वी बच गए थे उनसे ईर्ष्या करने लगे थे.
यह घटनाक्रम क्या बतलाता है? ये यह दर्शाता है कि तब तक बाहरी आक्रमण होने लगा था. क्यों, क्योंकि हम पौराणिक कथा के इंद्र की तरह विलासी अय्याशी कामुक और भोगी बन चुके थे. हम आपस में ही एक-दूसरे की टांग खींचने में व्यस्त रहते थे.
यही तो करते दिखाया गया है पौराणिक कथाओं में इंद्र को, सदा किसी ना किसी षड्यंत्र में लीन. इस तरह हम इतने कमजोर हो गए थे कि असुर हम पर हमला करने लगे.
ये असुर कोई और नहीं, बाहरी आक्रमणकारी थे जिनकी वैदिक काल में हिम्मत नहीं होती थी बलशाली आर्यों के सामने आने की. लेकिन पौराणिक काल आते आते सब बदल गया था, जब भी कोई असुर हमला करता तो हम (सभी देवता, इंद्र सहित) पहुंच जाते महादेव और विष्णु के सामने सहायता के लिए.
आज भी तो हम हर किसी संकट में मंदिर पहुंच जाते हैं. जबकि महादेव तो हमारे अंदर ही विराजमान है. ज़रूरत है उनको पहचानने की. अपने भीतर जाग्रत करने की. हम वैदिक मन्त्र भी भूल गए जो कहता है, ‘अहं ब्रह्मास्मि’ अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं.
आज इंद्र का कोई नामलेवा नहीं, वो अस्तित्वहीन है.
ठीक ही तो है. क्या आज हमारा कोई अस्तित्व बचा है? नहीं.
अगर आज के इंद्र अर्थात हमारा वर्णन करना हो तो, आज के इंद्र को लोभी, मक्कार, जाति में बंटा हुआ, अकर्मी, कर्महीन, उपभोग में पूरी तरह डूबा हुआ, महामूर्ख दिखाना होगा.
या अपने अपने अंदर झांकिए, जैसा आप अपने आप को पायेंगे वैसा ही इंद्र गढ़ना पडेगा. और फिर दूर हो कर देखिये, कैसा दिखता है आज का इंद्र? और जैसा भी दिख रहा है उससे भी कहीं अधिक आपका पतन हो चुका है. इसलिए मत हंसिये, आज इंद्र पर…
(अपनी आने वाली पुस्तक ‘22वीं सदी का एकमात्र प्रवेशमार्ग: वैदिक सनातन हिंदुत्व‘ से)