दुनिया का कोई भी विकसित, समृद्ध खुशहाल राष्ट्र देख लीजिए, आपको स्वास्थ्य के लिए जो सबसे बेहतरीन अस्पताल हैं वे सरकारी सिस्टम के मिलेंगे.
उन देशों की 90 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या सरकारी अस्पतालों में विश्वस्तरीय इलाज, साफ सुथरे वातावरण में पाती है .
भारत में इसका उल्टा है. न सिर्फ उल्टा है वरन जबसे अस्पताल एक व्यवसाय के रूप में स्थापित हुए हैं, जिनका मालिक कोई भी बन सकता हो, चिकित्सक होना आवश्यक नहीं, तबसे बड़े व्यवसायी, चिकित्सक, कॉरपोरेट, राजनीतिज्ञों का पैसा इस बेहद मुनाफे के व्यवसाय में लगना शुरू हो गया है.
कितने ही बिल्डर्स ने हर शहर में अस्पताल खोल लिए.
यहां तक तो ठीक था. लेकिन सारी सरकारी पॉलिसी, ये प्राइवेट बड़े अस्पतालों एवं नए प्राइवेट मेडिकल कॉलेज आसानी से खुल सकें, इस रुख से बनने लगीं हैं.
प्राइवेट मेडिकल कॉलेज खोलने के नियमों में भारी छूट दे दी गई. उनमें झूठी फैकल्टी, से लेकर झूठे मरीज़ तक रखे जाने लगे दिखाने को. फिर अमीरज़ादे पैसे देकर किसी भी गुणवत्ता के चिकित्सक क्यों न बन जाएं.
वहीं विभिन्न राज्य सरकारों एवं केंद्र सरकारों की पूरी योजना छोटे क्लिनिक और छोटे अस्पतालों पर नियमों, टैक्स का बोझ डाल उन्हें बंद करवाने की लगती है. और इस तरह की पॉलिसी मेकिंग में कॉरपोरेट अस्पतालों की सलाहों का अवश्य कोई न कोई रोल होता होगा.
जैसे रिलायंस, सब्ज़ी-फल बेचने लगी, वैसे ही छोटे-छोटे क्लिनिक जो मोहल्लों, कस्बों, शहरों में लोगों का प्यार पाते रहे हैं, आगे चल कर शायद बंद होते जाएंगे. और इनकी जगह बड़े कॉरपोरेट लेते जाएंगे.
किसी भी विकसित देश में स्वास्थ्य योजनाएं मुनाफे के लिए नहीं, लोगों को स्वस्थ रखने बनती हैं.
लेकिन मुझे लगता है भारत में योजना बनाने वाले, स्वयं का या अपने साथियों का मुनाफा होगा या नहीं, इस बात को भी ध्यान में रखते हैं.
शायद यहां survival की लगातार जंग ने कोई लालच, corruption का कोई genetic mutation इंसानों में डाल दिया है. जो औरों की, बच्चों की बीमारियों में भी पहले मुनाफा ढूंढता है.
आप देखें, एक ओर 7 स्टार अस्पताल हैं, दूसरी ओर एक गरीब को सरकारी अस्पताल में बिस्तर नसीब नहीं होता.
देश की राजधानी दिल्ली के किसी भी सरकारी अस्पताल में आप देख लें एम्स छोड़ कर. एक बिस्तर पर 2 से 3 बीमार बच्चे दिखेंगे. एम्स इसलिए छोड़ना है क्योंकि वहां एक बिस्तर पर 2 तो नहीं होते लेकिन बिस्तर मिलना ही जंग जीतने जितना कठिन है.
वहीं एस्कॉर्ट, अपोलो के बड़े कमरों में कोई अमीर आराम से इलाज करवाता मिलेगा. इतनी अधिक असमानता स्वास्थ्य जैसे मूलभूत अधिकार में भारत का ‘selectively सहनशील’ जनमानस ही स्वीकार कर इसे अपनी नियति मान सकता है.
एक तरह से एक ही देश में समानांतर अनेक देश बसते हुए.
लंका सोने की थी, शायद अयोध्या से बेहतर infrastructure रहा होगा रावण राज्य में लंका का.
सोने की नगरी… अशोक वाटिका से बेहतर और क्या होगा.
लेकिन लोगों का जीवन अयोध्या से बेहतर तो नहीं ही था.
राम राज्य मात्र इंफ्रास्ट्रक्टर से नहीं बनते. वहां के बाशिंदों का जीवन, पोषण, स्वास्थ्य, समानता, खुशहाली, न्यायप्रियता से बनते हैं. देश, राज्य सिर्फ ज़मीन के टुकड़े नहीं उनमें सांस लेती और सांस छोड़ती जनता से भी बनते हैं.
स्वास्थ्य, शिक्षा और न्याय जैसी मूलभूत आवश्यकताओं में भारत का सिस्टम जो हमसे ही बना हुआ है, देश के 40 प्रतिशत गरीब लोगों को एक पैकेज, 50 प्रतिशत मध्य वर्ग को एक पैकेज और 10 प्रतिशत अमीर को भिन्न पैकेज उपलब्ध कराता है.
किसमें?… …न्याय, स्वास्थ्य और शिक्षा में!!!
वह कैसा न्याय जो गरीब के लिए भिन्न, अमीर के लिए भिन्न हो. वह कैसी स्वास्थ्य व्यवस्था जो गरीब के लिए सर्वथा भिन्न, अमीर के लिए सर्वथा भिन्न हो?
स्वास्थ्य और शिक्षा में मुनाफे की मंशा वाले देश कभी विकसित नहीं बन सकते भले वहां सोने चांदी की रोड और बिल्डिंगे ही क्यों न हों.
दुर्भाग्यवश हमारे survival instinct के संघर्ष और असुरक्षा से जन्मे संचय करने के ‘सेल्फिश जीन’ ने शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों ही में मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति ने देश के बाशिंदों को मिलती सुविधाओं में ज़मीन आसमान की असमानता ला खड़ी की है.
एक ओर किसी ग़रीब का बच्चा किसी सरकारी अस्पताल में बिना वेंटिलेटर के खत्म हो जाता है. उसकी टिमटिमाती आंखों के सामने.
दूसरी ओर मलेरिया होने पर वेंटीलेटर की कीमत के बराबर का कमरा और इलाज दिया जाता है किसी अमीर को.
हम क्यों जर्मनी, साउथ कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन जैसे सरकारी अस्पताल नहीं बना सके, इसकी वजह मात्र और मात्र मंशा के अतिरिक्त क्या हो सकती है.
जब कॉरपोरेट अस्पतालों को एकड़ों ज़मीन मिल कर उनकी मशरूमिंग हो सकती है तब सरकारी अस्पताल साफ सुथरे और सुदृढ़ क्यों नहीं बन सकते?
क्यों लिख रहा हूँ यह सब, पता नहीं. रुकता हूँ अब.