मेरा व्यक्तिगत जीवन फिल्मों और उसके गीतों से बहुत अधिक प्रभावित रहा है… जीवन में चल रही घटनाओं के दौरान कुछ विशेष गीत मेरे जीवन में अचानक से अवतरित होते हैं… और फिर बनता है उससे जुड़ी घटनाओं का तानाबाना… वहीदा का जन्मदिन आया तब मैं उनके रंगीला गीत से ही छली जा रही थी… ऐसे में उनके बारे में लिखने के लिए मैं जितनी उत्कंठ थी, उतनी ही शब्दों से खाली…
बिलकुल वहीदा के नैसर्गिक कोरेपन जैसी… हाँ, वहीदा का चेहरा मुझे सदा एक कोरे कागज़ की तरह दिखाई देता है, शायद उनकी सादगी इसकी वजह रही हो. लेकिन कोरे कागज़ का कोरापन भी अपना स्वभाव लिए होता है. कोरा कागज़ कभी भी खुशियों से भरा नहीं दीखता, उसमें एक खालीपन सदा विद्यमान होता है, वही उसका नैसर्गिक गुण होता है.
वहीदा का वही नैसर्गिक गुण कुछ निर्देशकों ने समझा और उसे परदे पर उतारा… लेकिन अपने कोरेपन को उसकी अधिकतम सीमा तक यदि वो किसी फिल्म में श्रृंगारित कर पाई तो वो है उनका “रंगीला रे” गीत…
अपने छलिया के सामने ही उससे विरह के गीत को प्रस्तुत करने का मौका जब वहीदा को मिला तो लगा यह पहला और अंतिम गीत है जहाँ उनके कोरेपन में उन्होंने अपनी पीड़ा को ऐसे श्रृंगारित किया कि पिया की प्रतीक्षा में बैठी दुल्हन से अधिक पीड़ा की दुल्हन को सुन्दर बना दिया…
इतनी सुन्दर और भावों से भरी दुल्हन ना उसके पहले मैंने देखी ना उसके बाद कभी देखने को मिलेगी… उसका कारण सिर्फ उनका अभिनय ही नहीं, कवि गोपालदास नीरज का गीत और लता की आवाज़ का संयोजन भी है, जो अब कभी नहीं मिलेगा…
दुःख मेरा दुल्हा है, बिरहा है डोली, आंसू की साड़ी है, आहों की चोली आग मैं पीऊँ रे जैसे हो पानी… ना रे दीवानी हूँ, पीड़ा की रानी… मनवा ये जले है, जग सारा छले हैं… सांस क्यों चले हैं पिया… वाह रे प्यार वाह रे वाह
जब एक विरहणी पर अपने प्यार पर वाह करने का दुस्साहस उमड़ता है तो मिलन उसका अंतिम लक्ष्य नहीं रह जाता… उसका यूं विरहा के रंग में रंग जाना ही उसकी परिणिति है…
पलकों के झूले से, सपनों की डोरी प्यार ने बांधी जो, तू ने वो तोड़ी खेल ये कैसा रे, कैसा रे साथी… दिया तो झूमे है, रोये है बाती… कहीं भी जाए रे, रोये या गाये रे… चैन ना पाए रे हिया… वाह रे प्यार वाह रे वाह
यूं तो वहीदा का अर्थ होता है अद्वितीय, विशेष… लेकिन शुरुआती दिनों में उन्हें द्वितीय अभिनेत्री के रूप में ही फ़िल्में मिली… लेकिन उन्होंने उसमें कहीं भी दूसरी औरत वाला पक्ष नहीं आने दिया… अपनी हर भूमिका में वो अद्वितीय ही रही… प्रेम त्रिकोण पर बनी फिल्म को यदि समकोण त्रिभुज कहा जाए तो वहीदा का किरदार हमेशा कर्ण रेखा की तरह रहा…
प्रेम का बस इतना सा ही गणित होता है… विरह जब अपने शून्य में उतर जाए तो उसमें कितना भी प्रेम का गुणा करते रहो, वह शून्य ही रहता है.. उतना ही खाली, उतना ही कोरा… वहीदा के चेहरे जैसा और नीरज के शब्दों जैसा…
छलिया रे, ना बुझे है किसी जल से ये जलन……..
हमेशा की तरह भावप्रवण
बहुत अच्छा लिखा है आपने