कैकेयी को खुद ही करना होगी मंथरा की जूतमपैजार

डॉ बिल वार्नर, इस्लाम के आलोचक हैं लेकिन खोखली बात नहीं करते, ठोस आधार पर अपने तर्क देते हैं.

उनका एक लेख कल साझा किया था – Inoculation against Islam याने इस्लाम विरोधी टीका लगाना.

डॉ वार्नर बहुत ही objective व्यक्ति हैं. पहले ही परिच्छेद में साफ कर देते हैं कि इस्लाम की स्वीकार्यता इसाइयों में इसलिए बढ़ गयी है क्योंकि इसाइयत स्त्रैण हो गई है.

और भी कारण दिये हैं जिनका उल्लेख इस स्त्रैणता के मुद्दे का परामर्श लेने के बाद करूंगा.

औरत हमेशा मर्द को चाहेगी यह प्रकृति का नियम है. जहां औरत के दिमाग में भूसा भरकर, चंद अपवादों के आधार पर, इस रिश्ते को मर्द की गुलामी बता दिया है वहाँ समाज में अपराधबोध चलाने के कारण नियम बदले गए, और उनसे बंधे मर्द नामर्द हो गए. लेकिन यह प्रकृति को मंजूर नहीं होता और वो अपना काम करती रहती है.

औरत को मर्द का आकर्षण हमेशा रहता है और जो मर्द हो उसके प्रति वो आकर्षित होगी. अपने समाज में न मिले तो अन्य समाज में.

मुसलमानों ने इसी बात का फायदा उठाया है. किसी भी बहाने से क़ानूनों को अपने समाज पर असर करने नहीं दिया जिसके कारण उनकी औरतों को हमेशा बंधन में रखा गया और यही अल्लाह की मर्जी भी बताई गयी.

यह प्रोग्रामिंग इतनी गहरी होती है कि पढ़ी-लिखी और ऊंची डिग्री हासिल की हुई महिलाएं भी दक़ियानूसी के बचाव में तर्क देती मिलेंगी, ये कहकर कि हमारी आज़ादी तुम क्या जानो.

बाकी आप को यह भी सोचना चाहिए कि वे जाये तो जाये कहाँ? गैर इस्लामी अगर मुसलमान हो जाये तो तुरंत मुसलमानों का संरक्षण पाता है.

मुसलमान अगर इस्लाम त्याग दे तो पहली बात उसकी फैमिली पर दबाव आता है. अक्सर आदमी भी अपनी फैमिली को नहीं छोड़ता, औरत के लिए तो लगभग नामुमकिन है.

आदमी अगर फिर भी ज़िद पर रहे तो फैमिली उस से कट जाती है. और तब भी वो ज़िद पकड़ा रहे तो उसकी हत्या करना मुसलमान अपना हक़ और कर्तव्य दोनों समझता है.

सब के सामने क्रूरता से उस आदमी की हत्या कर देगा ताकि औरों के मनों में दहशत पैदा हो.

मुल्क के कानून का उसे डर नहीं, फांसी भी हुई तो शहीद होगा और परिवार का ख्याल रखा जाएगा. और दिमाग तो प्रोग्राम किया हुआ है ही कि यह सवाब का काम है.

यह रही आदमी की बात, औरत ने जब भी इस्लाम छोड़ा है, कितनी कामयाब हुई हैं और कितनों की उनके पसंद के पुरुष के साथ-साथ क्रूरता से हत्या की गई है?

बाकी डॉ वार्नर की बात सही है, उन्होने उन्हीं बातों का वर्णन किया है जो एक स्त्रैण हो चुका समाज, मर्दवादी समाज में खोजता है. खेल हमारे साथ भी यही हुआ है और इसके जिम्मेदार वामपंथी ही हैं.

स्त्रैणता के अलावा और मुद्दे हैं जैसे समाज का साथ साथ बंधा होना, भाईचारा, एक दूसरे का साथ देना, परिवार व्यवस्था आदि.

इन सभी बातों का वामियों ने व्यक्तिवाद (individualism) के नाम पर विनाश कर दिया. इन बातों को दक़ियानूसी, गुलामगिरी आदि बताकर खारिज कर दिया गया. विद्यालयों में यही विचार प्रचारित किए गए.

चूंकि इन बातों को पसंद करनेवाले लोग ज़्यादातर धार्मिक थे या फिर चर्च से जुड़े थे तो धार्मिक मान्यताओं का विज्ञान की कसौटियों पर मज़ाक उड़ाकर इन मूल्यों को भी खारिज कर दिया गया.

याने जो धार्मिक ईसाई है वो धार्मिक नहीं, अंधश्रद्ध है. अंधश्रद्ध है इसलिए मूर्ख है, उसका कुछ भी अनुकरणीय नहीं है. उसका अनुकरण जो भी करेगा, हम उसे भी उसी नाप से तोलेंगे.

गुरु को वहाँ भले ब्रह्मा विष्णु महेश्वर न कहते हों, शिक्षक का आदर वहाँ भी है, और अगर शिक्षक ही इन सभी बातों का, परम्पराओं का और संस्कार एवं सम्बन्धों का मज़ाक उड़ाए तो उसके सामने बच्चों में ये संस्कार टिक पाना बहुत कठिन है. इसाइयत के मूल्यों को वामियों ने बहुत ढंग से नष्ट किया.

इस्लाम के साथ यह न कर सके तो इस्लाम के साथ हो लिए, उनको वहाँ की सत्ताओं को ढहाने के लिए इस्लाम में साथी मिल गया.

लेकिन मनुष्यों में इन सभी सम्बन्धों की चाहत अमिट होती है. आप ने देखा होगा, जहां भी कोई फिरंगी ईसाई महिला (ब्लैक नहीं) अगर किसी भारतीय पुरुष या स्त्री की दोस्त बन जाती है तो सीधा उसके घर तक जाती है. उसके परिवारवालों से जुड़ती है और जुदा होते वक्त बाकायदा आँसू बहाती है. यह मूल स्वभाव है, और जिन बातों का उसके समाज में अभाव हो चुका है, उनकी तरफ वो आकर्षित होती है.

खुद की insularity के कारण मुसलमानों ने अपने समाज में इन संस्कारों को बचा रखा है. पढे लिखे हो न हो, इन बातों की सूझ मुसलमान को है. अपना मर्दवाद भी बचा रखा है जिसके कारण मुस्लिम पुरुष सदा औरों से अधिक आक्रामक रवैया अपनाए रहता है. उसको उसका फायदा पता है, काफिर औरतें आकर्षित होती हैं.

लेकिन इन्हीं औरतों को यह नहीं पता और न ही वे जानना चाहती हैं कि उन्होने ही अपने समाज के मर्दों को नामर्द बना रखा है वामी मंथराओं की बातों में आ कर.

और फिर जहां मर्द से पाला पड़े वहाँ उनकी सोच केवल vagina बन कर रह जाती है. दु:खद बात होती है लेकिन मुसलमान से निकाह कर के खुशी से उसकी गुलामी करने वाली औरतें भी अपने ही भाइयों को नारीवाद के नाम पर नामर्द बना देती हैं. महिला सशक्तिकरण के नाम पर अपने ही मर्दों का अशक्तिकरण करती हैं.

पति को दबाये रखना भले ही अच्छा लगता हो, लेकिन इसके परिणाम तब सामने आते हैं जब बेटी लव जिहाद की शिकार होती है और इनके जैसे ही संस्कारों से आई बहू 498 A का झूठा केस दर्ज कराके घर से निकाल देती है.

बात बहुत बिगड़ी तो है लेकिन अभी भी बन सकती है. कैकेयी को खुद ही मंथरा की जूतमपैजार करना होगी.

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