पुरानी परिचित ज़िंदगी, जिसे भरपूर जिया और फिर भी नहीं जिया…. बीती रात के स्वप्न की भांति हो गयी जिसकी बस झलकें भर याद है. पीछे ज़रा सी गर्दन घुमाकर देखती भी हूँ तो लगता है जैसे किसी और के जीवन में झाँक रही हूँ. वही जीवन के सामान्य से नियमों में उलझी हुई कोई, जिसके लिए सुख, मन और विचारों की संतुष्टि नहीं वरन कुछ औपचारिकताएं थी जो सुख प्राप्त करने का सर्वव्यापी तरीका था….
और अब!! जैसे किसी ने पृथ्वी से उठाकर किसी और ग्रह में अकेला छोड़ दिया हो…. यहाँ आपके जैसे आप अकेले हैं, किसी भीड़ का हिस्सा नहीं… यहाँ की भूमि, आसमान और हवा भी परिचित नहीं तो अपने जैसा कोई और खोजना तो असंभव सा है. जहां तक नज़रें दौड़ाओ वहां तक सब कुछ भव्य, विशाल, अनजाना, अपरिचित परन्तु चरम सीमा तक छू जाने वाला आनंद….
समय का कोई पैमाना नहीं, जीवन के संकुचित नियम नहीं, कुछ स्वर्णिम नियम अवश्य हैं परन्तु आपको पालन करने की आवश्यकता नहीं, आप उन नियमों के अंतर्गत ही पल्लवित हो रहे हैं. चारों ओर सम्भावनाओं के द्वार, कौन-सा द्वार आपको किस नई दुनिया और नए अनुभवों से मिलावाएगा आप नहीं जान सकते.
नीत्शे की “दस स्पेक जरथुस्त्र” की कुछ पंक्तियों को समझाते हुए बब्बा कहते हैं-
“हम इस मानवता के आदी हो गए हैं- यही कारण है कि हम उसकी विभत्सता को नहीं देख पाते. हम उसकी कुरूपता को नहीं देख पाते, हम उसकी ईर्ष्या को नहीं देख पाते, हम उसकी अप्रेम दशा को नहीं देख पाते, हम उसके प्रतिभाशून्य, जड़मति, अतिसामान्य व्यवहारों को नहीं देख पाते. जरथुस्त्र को सुनते हुए तुम मनुष्य जाति को देखने के एक सर्वथा अलग ही ढंग के प्रति जाग सकते हो.”
11 दिसंबर से लेकर आज की तारीख तक में बब्बा को सिर्फ सुनाया ही नहीं गया बल्कि उसके एक एक अक्षर को मेरे अन्दर मेरी साँसों, मेरी धमनियों में बहते लहू, मेरी स्थूल काया में पानी की तरह डाला गया जैसे किसी पौधे को पल्लवित करने के लिए डाला जाता है.
जिसके फलस्वरूप वह छोटा सा पौधा अपने खिलने की संभावना को पूरा करता है, उसमें फूल लगते हैं, फल लगते हैं. छोटी-छोटी नई किसलय उगती हैं… बस वैसे ही मेरे समूचे अस्तित्व में नए फूल, नए फल और नई संभावनाओं की छोटी छोटी पत्तियाँ उगने लगी हैं. हर छोटी बड़ी घटना का मेरे अस्तित्व पर जो प्रभाव पड़ता है वो कभी फूल के कोमल स्पर्श की तरह होता है तो कभी यूं होता है जैसे किसी ने पूरी चट्टान छाती पर रख दी हो…
सामाजिक नियमों के सभ्य और दिखावटी संस्कारों में दबी आत्मा को जब पहली बार अतिसामान्य, बीहड़ लेकिन उन्मुक्त, स्वच्छंद और वास्तविक व्यवहार से सामना करना पड़े तो उसकी प्रतिक्रया क्या हो सकती है… लेकिन मैं उस घटना के दौरान अपनी ही प्रतिक्रियाओं का निरिक्षण करती हूँ और घटनाओं के प्रयोग हो जाने पर जब निष्कर्ष पर विचार करती हूँ तो खुद में एक अभूतपूर्व परिवर्तन पाती हूँ…
उस घटना के दौरान चाहे ये सब मुझे अजीब लगता हो, जीवन के, समाज के, सभ्यता के सामान्य नियमों के विपरीत लगते हों, परन्तु बाद में उसके “प्रतिभाशून्य, जड़मति, अतिसामान्य” व्यवहार को समझने के लिए संभावना का एक नया द्वार मेरे सामने खुला हुआ होता है.
कल रात से लेकर अभी तक की असामान्य घटनाओं का परिणाम है ये शब्दों का ढेर, हैं तो वही परिचित शब्द लेकिन जीवन को नए तरीके से समझने और उसे नया अर्थ देने की मुझे सामर्थ्य और दिशा मिली है.
ऐसी दशा में ध्यान बाबा के मुख से दिशा देती हुई अपने रविंद्रनाथ टैगोर की इस कविता को सुनना अपने आप में एक अद्भुत अनुभव था….
मैं अनेक वासनाओं को प्राणपण से चाहता हूँ,
तूने मुझे उनसे वंचित रख, बचा लिया है
तेरी यह निष्ठुर दया मेरे जीवन के कण-कण में व्याप्त है,
तूने आकाश, प्रकाश, देह, मन, प्राण बिना मांगे दिए हैं
प्रतिदिन तू मुझे इस महादान के योग्य बना रहा है
अति इच्छा के संकट से उबारकर
मैं कभी राह भूला-सा, कभी तेरी राह पकड़े-सा तेरी ओर लक्षित चलता हूँ
निष्ठुर! तू मेरी आँखों की ओट हो जाता है
यह तेरी दया है, इस रहस्य को मैं जान गया
तू मुझे अपनाने के लिए ठुकराता है
मेरा जीवन परिपूर्ण करके तू अपने योग्य बना रहा है
अधूरी इच्छाओं के संकट से उबार कर
स्वामी ध्यान विनय I Am Really Blessed….
– आपकी विनय शैफाली