जगतजननी : मत भूलना कि तुम्हारा समाज इस विराट महाछाया की छाया मात्र है

‘श्वेताश्वतर उपनिषद’ में ऋषि परमात्मा की स्तुति करते हुये कहते हैं, “त्वं स्त्री त्वं पुमान् असि, त्वं कुमार उत वा कुमारी” अर्थात, ‘हे परमेश्वर, तुम्हीं स्त्री हो, तुम्हीं पुरुष का रूप धारण करती हो और तुम्हीं कुमार या कुमारी हो’.

इसका अर्थ ये है कि हमारे धर्म में स्त्री ‘परम-सत्ता’ की भी प्रतीक है, उसे ‘जगतजननी’ भी इसीलिये कहा गया है. इसलिये स्वामी विवेकानंद अक्सर हिन्दुओं से कहा करते थे –

“मत भूलना कि तुम जन्म से ही ‘स्त्री’ के लिये बलिस्वरूप रखे गये हो; मत भूलना कि तुम्हारा समाज उस विराट महाछाया की छाया मात्र है”.

नारी की रक्षार्थ हमारे बलिदानों के उदाहरणों से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं.

त्रेता से लेकर कलियुग तक और सीता से लेकर पद्मिनी तक हमने देखा है कि कैसे हिन्दू समाज ने स्वामी जी के कथनों को सत्य साबित किया है.

अटल जी लिखते हैं, “चकाचौंध दुनिया ने देखी/ सीता के सतीत्व की ज्वाला/ विश्व चकित रह गया देखकर/ नारी की रक्षा-निमित जब/ नर क्या वानर ने भी अपना/ महाकाल की बलि-वेदी पर/ अगणित होकर सस्मित हर्षित शीश चढ़ाया।”

वहां वो वानर ‘जानकी’ यानि नारी-जाति के सम्मान-रक्षण के लिये लड़ रहे थे क्योंकि वहां उनके सामने राक्षसी अपसंस्कृति खड़ी थी जिनके यहाँ दूसरे की स्त्री के अपहरण और शील भंग को ही धर्म माना जाता था.

तो त्रेता के लाखों साल बाद जानकी के लिये बलिदान होने वाले वानरवीरों के स्थान पर अब ‘क्षत्रिय वीर’ थे और सीता की जगह थीं माँ पद्मिनी और उनके साथ खड़ी हजारों पद्मिनियाँ जो नीच मलेच्छों से अपने शील के रक्षण का संकल्प बांधी हुईं थी.

पद्मिनी के शील-रक्षणयज्ञ में चितौड़ ने अपने हर किशोर, तरुण और जवान को झोंक दिया पर शायद पद्मिनी माँ जानकी की तरह सौभाग्यशालिनी नहीं थीं, सारे वीर बलिदान हुये और नीच मलेच्छ जब पद्मिनियों का शील-भंग करने आगे आये तो वहां केवल राख थी.

सब पद्मिनियों ने अपने शील-रक्षण के लिये अग्नि-देवता का आह्वान किया और विष्णु-पत्नी वसुंधरा ने सीता की तरह फिर से अपनी बेटियों के लाज को अपनी गोद में बटोर लिया. कामुक दरिंदे अलाऊदीन के नसीब में केवल राख आई.

ये जौहर सती होना नहीं था, ये उन देवियों की कायरता भी नहीं थी. ये अगर थी तो केवल वो ‘अग्नि-आहुति’ थी जो देवकी के गर्भ से कृष्ण रूप में जन्मी थी और जिसने धरती को पापियों और अनाचारियों से मुक्त कर दिया था.

पद्मिनियों के जौहर का तेज़ मलेच्छों के लिये अभिशाप बनकर आया और उसकी ज्वाला में वो झुलस गये.

जौहर के तेज़ से आलोकित वीर हम्मीर ने उस कामुक अलाउद्दीन की आँखों के सामने उस पराभव का बदला लिया और मलेच्छ सेना को 1313 ईसवी में बुरी तरह रौंदते हुये न केवल अलाउद्दीन के एक बेटे को जीवित ही पकड़ लिया बल्कि चितौड़ की प्रतिष्ठा को भी फिर से स्थापित कर दिया.

अकेली इस जौहर की घटना ही सारी हिन्दू नारियों का चरित्र-चित्रण है. सेमेटिक मजहबों में नारी जननी तो है पर उसका मातृत्व अभिशाप माना गया है.

वहां वो ‘नरक का द्वार’ और ‘शैतान का हथियार है’ इसलिये उसके मान-रक्षण की कोई बात नहीं है, उसे बतौर तोहफ़ा मित्रों में बाँटा जा सकता है, किसी के आगे परोसा जा सकता है.

इसी कुत्सित संस्कारों में उधर की नारियाँ पलती हैं इसलिये कभी युद्ध हुआ तो वो स्वेच्छा से विजेताओं की भोग्या बनकर प्रस्तुत हो जाती थी और अपने बाप-भाई-चाचा के हत्यारों के बिस्तर पर अपने जिस्म के रौंदे जाने को अपना सौभाग्य मानती थी.

उनके इतिहास में एक भी उदाहरण नहीं है जब किसी नारी के शील-रक्षण हेतु कोई युद्ध हुआ हो या किसी नारी ने अपने शील-रक्षण के लिये जौहर किया हो, इसलिये माँ पद्मिनी के जौहर को न तो उस धारा वाले लोग समझ सकते हैं और न ही उस कुत्सित और तामसिक वृत्ति से प्रभावित लोग उसका मान रख सकते हैं.

हमारे हिन्दू धर्म में परंपरा थी कि पुत्र कटोरे में जल भरकर लाता था और उससे अपनी माँ का पाद-प्रक्षालन करता था, फिर उस जल का पान करते हुये नारी-जाति के प्रति सम्मान का प्रदर्शन करता था.

माँ पद्मिनी के चरण-रज का पान तो अब हम पुत्रों के लिये संभव नहीं है पर कम से कम उनके मान पर आघात करने के लिये बनाई गई फिल्म ‘पद्मावत’ का बहिष्कार कर हम उस जौहर-यज्ञ का कुछ तो मान रख ही सकते हैं. है न?

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