हुआ यूं अनूदित होते होते
देह और प्रेम की भाषा एक ही हो गयी!
परिचय की लम्बी सुरंग से
बाहर आना दोनों को ही गवारा न था!
दोनों ने ही अपने लिए बुना शब्दों का जाल,
प्रेम और देह समतुल्यता की देहरी पर थे एक,
पर्याय होते हुए भी पृथक थे,
पृथक होते हुए भी गलबहियां थीं!
दोनों ही कहते थे हैं प्रभु से निकट,
दोनों की एक ही थी ध्वनि,
दोनों का स्वर था एक!
प्रेम की हंसी ने देह को मोह लिया,
और मोह ने कब किसे एकांतवास दिया है,
देह को प्रेम कब किसने समझा है,
देह रहित प्रेम के महिमामंडन में,
एक ओर था साधन,
प्रेम प्राप्ति का साधन!
संघर्ष विकट है,
नैतिकता और प्रेम में संघर्ष विकट है…….
- सोनाली मिश्र