श्रीराम और श्रीकृष्ण के जीवन-चरित में एक बुनियादी अंतर है. श्रीकृष्ण जहाँ ‘अधि-राजनैतिक’ सत्ता का प्रतिपादन करते हैं वहीं श्रीराम ‘राजसत्ता’ के प्रतीक हैं.
पूरे रामायण में भगवान राम एक राजा के रूप में ही प्रस्तुत हुये हैं. उन्हें वनवास तो मिला पर वहां भी ऋषि-मुनियों और वनवासियों ने उन्हें राजा के रूप में ही देखा और उसी के अनुरूप उनका व्यवहार भी रहा.
इसलिये राम का जीवन-चरित आदर्श राज्य की कामना करने वाले किसी भी राजा के लिये पाथेय है.
अक्सर कृष्ण के बारे में कहा जाता है कि वो ‘निर्मोही’ थे पर मेरी दृष्टि में ये विशेषण भगवान राम के लिये भी तर्कसंगत और व्यवहारिक प्रतीत होता है क्योंकि प्रभु हमेशा उसी रूप में उपस्थित हुये हैं.
राम को वनवास हुआ तो पिता की आज्ञा सर-माथे पर कहते हुये जानकी, लक्ष्मण, माता कौशल्या और अपनी जन्मभूमि अयोध्या को छोड़ने में भी वो नहीं हिचके और अकेले ही वनगमन को प्रस्तुत हो गये.
लक्ष्मण और वैदेही तो बाद में उनके साथ हुये अगर वो साथ न भी जाते तो भी भगवान अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिये ‘निर्मोही’ बनकर अकेले ही निकल पड़ते.
हिमालय से विराट और समुद्र से गंभीर श्रीराम की एक विशेषता और थी. उनके शब्दकोष में ‘क्षमा’ शब्द नहीं था. ताड़का, सुबाहू, कबंध, शूर्पनखा और बाली से लेकर रावण तक के लिये राम ने क्षमा नहीं दिखाई.
अपने शब्दकोष में ‘क्षमा’ शब्द को उन्होंने तब भी नहीं आने दिया जब सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम से निकलने के बाद वैदेही उन्हें अहिंसा-धर्म के पालन का उपदेश देतीं हैं.
अपवाद केवल एक है जिसे भगवान ने दो-दो बार छोड़ दिया था. प्रथम बार तब जब वो सिद्धाश्रम में थे और वहां ऋषियों के यज्ञ का ध्वंस करने मारीच और सुबाहू नाम से दो राक्षस आये थे.
तब प्रभु ने सुबाहू समेत बाकी राक्षसों का तो वध कर दिया था पर ‘मारीच’ को केवल अधमरा कर छोड़ दिया था और वो उनके बाणों के प्रभाव से सौ योजन दूर समुद्र में जा गिरा था.
‘मारीच’ उसके बाद भी नहीं सुधरा और फिर से वो दंडकारण्य में मृग रूप धारण कर अपने दो और राक्षस साथियों के साथ ऋषि-मुनियों को कष्ट देने आ गया. प्रभु तब भी उसके सामने थे. राम ने तीर चलाया तो मृग रूप धरे उसके बाकी दोनों साथी राक्षस मारे गये पर मारीच राम के बाण से फिर बच गया.
राम विष्णु के अवतार तो थे पर मानव-रूप में आकर अपनी लीलाओं के द्वारा हमारे लिये पाथेय तय कर रहे थे. राजा को कैसा व्यवहार करना चाहिये और कैसा व्यवहार नहीं करना चाहिये इसकी शिक्षा भी दे रहे थे.
पहली बार शत्रु को जीवित छोड़ देने का नुकसान ये हुआ कि मारीच फिर से ऋषियों को संतप्त करने दंडक वन में आ गया और जब राम ने उसे दुबारा छोड़ दिया तो उसने जानकी हरण में मुख्य भूमिका निभाई.
रामायण में राम का जो चरित आया है उससे कहीं भी पता चलता है कि उनका निशाना कभी चूक गया हो, कहीं भी नहीं पर मारीच उनके तीर के निशाने पर आने से बच गया.
ऐसा नहीं है कि ये राम की योग्यता पर प्रश्न है, यहाँ ये प्रसंग प्रभु ने इसलिये दिखाया था ताकि उनका अनुगमन करने वाले राजा और शासक शत्रु को कभी भी छोड़ने की भूल नहीं करें.
शत्रु को अभय देना केवल संकट बनकर ही वापस लौटता है, प्रभु और मारीच प्रसंग की शिक्षा यही है और पृथ्वीराज चौहान से लेकर आजतक का प्रसंग इसका साक्षी है.
आप कह सकते हैं कि जानकी का हरण हो, फिर रावण मारा जाये इसलिये प्रभु ने ये लीला रची पर एक मिनट के लिये राम को सामान्य मानव मानकर सोचिये और फिर अनुभव करिये कि शत्रु को अभय देना और बार-बार देना देश के लिये, समाज के लिये और स्वयं अपने लिये कैसा संकट बनकर लौटता है.
राम और उनके दिखाये पथ का अनुगमन ही इस राष्ट्र के, हिन्दू धर्म के और हमारे अस्तित्व के रक्षण का एकमात्र रास्ता है.