उन ख़्वाहिशों को क्यों बोल देते हो तुम
जिन्हें एक लम्बे अरसे पहले
आबनूसी लकड़ी से बने
नक्काशीदार ताबूत में सहेज
उसे दफनाने की अंतिम क्रिया कर चुकी हूँ
किसे फ़र्क़,
कितनी बार नाम लिया
कितना याद किया या कब कब किया
खाना खाया या
उस पूरे दिन पानी भी नहीं पिया
जब कभी बात नहीं हुई होगी
कितनी बातें अधूरी छूट गई होंगी
करवा चौथ का चाँद तो
साल में सिर्फ एक दिन
भूखा प्यासा रखने को निकलता है ….
अक्सर, हो जाते थे उसके
साल में बहुत से
बिना चाँद की पूजा वाले करवा चौथ
किसी ने कभी कहाँ पूछा
चूड़ी क्यों नहीं पहनी तुमने
मुस्कुराता हुआ चेहरा
देखने के लिए जो मन चाहिए
ऐसा मन तो कभी कहीं था ही नहीं
आलते वाले पाँव
जब जब गीली ज़मीन से
उनके बिस्तर तक आते
चद्दर पर निशान न छूट जाए कहीं
धीरे धीरे इस डर ने घर बना लिया था
छूट गईं पुरानी आदतें
जीने का नया सलीका सीखने की कोशिशों में
स्निग्धता का परित्याग कर
मैं खुरदरी हो गई हूं
अब नहीं भाती “कांच की रेशमी चूड़ियाँ”
रेशम
कब धीरे धीरे चमकदार नायलॉन में बदला है
मैं खुद अनजान हूँ
मगर हैरान नहीं हूँ कभी
बजती हुई पाजेब
दसियों साल से गहनों की पोटली में ख़ामोश है
कि आहटें सुन कर जागना नहीं होता है
नहीं लगाई जाती पुकार आह भरने पर
ख़ामोश हो जाना बहुत खतरनाक होता है
होते हैं कुछ बदनसीब लोग
अपने सपनों की चिता खुद सजाते वक़्त
स्वयं को अग्निपुंज बना लेते हैं
आजन्म धीमा धीमा धुआँ धुआँ बन बिखरते रहने को
– प्रिया वर्मा