देहरी पर पाँव धरते वह ठिठका!
एक सा ही तो द्वार है, एक सा ही स्वागत!
फिर क्यों उत्कंठा पराई देहरी की,
क्यों उत्सुकता दूसरी देहरी के द्वार भेदन की!
वह भ्रामक भँवरे सा खड़ा है उस देहरी पर याचक सा बन!
नहीं नहीं, वह याचक नहीं!
वह देहरी का सहयात्री है इस यात्रा में,
दो देहरियों के एक होने की यात्रा में!
वह झांकता है उस देहरी की आँखों में,
आँखें मुंद रही हैं, जैसे वह किसी प्रतीक्षा में हो!
वह थामता है, उसे,
थमता है!
क्या रुक जाऊं? वह हठात प्रश्न सा करता है?
“क्यों?” एक प्रतिउत्तर सा आता है!
वह ढिठाई से क्षणों में उतर जाता है!
क्या उसे देहरी से लगाव है?
यह ढीठ प्रश्न उसे फिर तश्तरी में परोसा हुआ लगता है!
वह अपने तलवों के तले कई प्रश्न कुचल देता है!
आवश्यक नहीं हर प्रश्न का उत्तर देना,
आवश्यक नहीं हर द्वार की देहरी लांघना,
आवश्यक है संवाद कर पाना,
स्वयं और देहरी के प्रति समर्पित और निष्ठावान रह पाना.
समर्पण से वृहद और कुछ है क्या?
और फिर उन मुंदती आँखों में अपनी मुंदती आँखों का अंधेरा
मिला लेता है!
खोजता है अँधेरे में जीवन के क्षण,
रिक्तताओं को पूर्ण करने के क्षण
– सोनाली मिश्र