नये वर्ष की डायरी से : पिया की प्रतीक्षा में घूंघट ओढ़े बैठी रोज़ एक नई दुल्हन हूँ मैं

हर वर्ष जनवरी की पहली तारीख को बच्चों के दादाजी मुझे उपहार स्वरूप नई डायरी देते हैं. कम्प्यूटर की इस ठक-ठक में कलम अक्सर साथ छोड़ देती है. लेकिन उन्होंने कभी डायरी देना नहीं छोड़ा. उन्हें पता है मेरी आत्मा मेरे लिखे गए मृत शब्दों में हमेशा जीवित रहेगी.

डायरी में लिखना अमूमन ना के बराबर होता है अब. लेकिन स्वामी ध्यान विनय हमेशा कहते हैं, इस आभासी दुनिया और आपके मशीनी युग का कोई भरोसा नहीं. आप अपने कागज़ी दस्तावेजों को हमेशा संभालकर रखिये. अंत में वही काम आएँगे.

हुआ भी वही… बहुत सारे लेख पुरानी वेबसाइट के हैक होने से चले गए तो कुछ कम्प्युटर की फाइल्स करप्ट हो जाने से. कुछ फाइल्स के नाम ही याद नहीं और कहाँ सेव की है ये भी याद नहीं.

तो आज सुबह सुबह नई डायरी में कुछ लिखना शुरू किया. एक बही खाता लिखा, कम्प्यूटर पर आई तो लोग उसी बही खाते का ज़िक्र करते हुए मिले. ये जादू अक्सर, अमूमन रोज़ घटित होते देखती हूँ आजकल. मैं जो लिख या सोच रही हूँ चारों तरफ से उसी का ज़िक्र करते हुए शब्द या संकेत मिलते हैं. मैं इसे माया ठगनी की माया कहती हूँ.

जितना उसमें रस लो वो और उलझाती चली जाती है… कई बार समझ नहीं आता महामाया कहना क्या चाहती है, इस माया से मुक्त होने को या उसमें उलझे रहने को. ध्यान बाबा से कुछ पूछो तो वो हर बार मुस्कुरा देते हैं… बिना उलझे बस साक्षी भाव से उलझती जाओ.

खैर कभी उलझती, कभी सुलझती जो कुछ भी चलता है उसे शब्द ऊर्जा में परिवर्तित करके आप सबके सामने रख देती हूँ, ये जानते हुए कि मेरी बातों का तारतम्य बहुतों को समझ नहीं आएगा लेकिन कौन सा शब्द किस रूप में किसी के मन के बीज को अंकुरित कर जाता है ये भी तो नहीं पता.

इसलिए कहती हूँ कुछ लोगों के लिए लेखन ही उनका धर्म है. वो भले किसी श्रेणी या स्तर में न आता हो उसकी अपनी एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है. बस मैं अपने उसी धर्म का पालन करती हूँ.

कागज़ी दस्तावेज

जीवन में पहली बार कलम कब उठाई ये तो याद नहीं, लेकिन कब कलम का साथ छूटा ये हमेशा यादों के बहीखाते में दर्ज हो गया. उसी बहीखाते से कुछ पुराना हिसाब चुकाने नए भाव गढ़ती हूँ, शब्दों का जाल बुनती हूँ, खुद ही उसमें फंसती हूँ, खुद ही मुक्त होकर नभ में विचरती हूँ.

कोई इसे भटकन कहता है, कोई जीवन चक्र, मैं इसे कहती हूँ तलाश… अपने ‘मैं’ की तलाश. जब जब किसी ‘तुम’ में पीछे कुछ छूट जाता है, उसमें से अपने ‘मैं’ को समेटकर आगे बढ़ने की यात्रा. क्योंकि ये छूटना वो अतिरिक्त भार होता है जो आपकी आगे की यात्रा को बाधित कर रहा होता है.

ये अपने ‘मैं’ से ‘मैं’ तक की यात्रा है जो बहुत सारे ‘तुम’ से होकर मंज़िल का पता दे जाती है.

समय-समय पर जब भी अपने ‘मैं’ में झाँका है, खुद को हमेशा नया पाया है.. एक नई नवेली दुल्हन, अनछुई, पवित्र, प्रेम से भरी हुई… मैं अब रोज़ एक नई दुल्हन हूँ, अपने पिया की प्रतीक्षा में घूंघट ओढ़े बैठी… और पिया का नाम है… “मोक्ष”!

Comments

comments

1 COMMENT

LEAVE A REPLY