नित नूतन दिवस
कुछ नई हवाएं
कुछ नए फूल और
कुछ नए दृश्य लेकर आता है,
प्रातः की स्वर्णिम आभा में
उत्साह सा लगता है जैसे,
प्रियतम का इंतजा़र
आकाश नवीन संभावनाओं से
सराबोर दिखता है.
आत्मीयता का वह छींटा,
नव अंकुरित, पुष्ट हो
बन गया है लहलहाता वृक्ष,
जब तब मन-पादप की थरथराहट
…………..देती है आहट
तुम्हारे आने की,
अब कि तुम जो आए, मैं कह भी दूंगी
तुम ठहर जाओ कि,
कुछ देर और देख लूं ‘तुमको’.
ऐसा नहीं है कि यह कविताएं,
कल नहीं थीं और
आज ही उपस्थित हो गई हैं,
पर इलायची की सुगंध सी
स्मृति तुम्हारी, बस गई है साँसों में
जब से तुम गए हो
मंद स्मित तुम्हारी
भाषा बनकर ठहर गई है मुझ में,
रचना चाहती है अनुष्टुप _____
तुम !! हां तुम ही तो ___
‘मात्र पाठक नहीं हो ;
किरदार हो मेरे काव्य का
तुम ही तो अहोरात्र
मुझ में लिख रहे हो
प्रणय _____
और मैं
एक अक्षर
जो नाद है
प्रतिध्वनि…… अनदेखे से प्रेम की
हां तुम हो ना!!
अनदेखे ही तो,
मुझ में विराजमान
गंधर्व व्यक्तित्व के रूप में…
– यामिनी ‘नयन’ गुप्ता