संक्रांति काल की देहरी सायास दोहराई जाने वाली है
ये उम्रों के सैकड़ों पहाड़ों के दरकने का सा दौर है
नदी, पहाड़, सागर से आगे कभी कल्पना नहीं की
सदा घड़ी के पेण्डुलम के मध्यांतर जितने अंतराल में तुमको सोचा है
स्वयं तुम्हारी चट्टान सी देह से दरकती, घिसटती हुई
जलधार के नीचे निथरती व्यर्थ रेत बनी हूँ
हर सदी में तुम्हारे अवलंबन से मुझमें मुक्तिसंघर्ष की गाथा का संगीत जन्मता रहा
मैं जिस भी मोड़ से मुड़ती गई हूँ, हर उस मोड़ पर तुम्हें तटस्थ पाया है
राम, कृष्ण, नल, दुष्यंत और न जाने कितने असंख्य रूपों में
मैं आत्मा और देह के मध्य सम्बन्धों के साक्ष्य कैसे उपलब्ध कराऊंगी
इस देह को किसी अलगनी पर उतारे हुए चोले के समान टाँगती आई हूं
शेष आत्मा रहे ज्यों परमात्मा में, ऐसे क्षणों में…
साक्षात्कार की वेला में अनुभव हुई चरम आत्मिक शांति
समय बन्ध के परे जब जब मिले शकुंतला से तुम, हे दुष्यंत !
स्त्रीत्व की निस्सीमता को सीमाओं में तुम ही बाँध पाए, पुरुष !
मगर मिलन के साक्ष्य समय नदी में बहा दिए उसने,
आत्म मुग्धता के क्षणों में …
स्व में डूबी हुई वो आत्म मुग्ध सुन्दरी स्मृति चिन्ह रूप मुद्रिका को बहा बैठी
प्रश्न ये था कि स्मरण दिलाना क्यों पड़ जाना था उस नायिका को
क्या तुम भूल सकते थे उसका स्पर्श…
ऐसा मनभाव जैसे प्रस्फुटित सुगंध हो
ज्यों नाभि की कस्तूरी से मृगी को लुभाती हुई
जल में, मीन में, पर पुरुष में
चरित्रहनन की चेष्टाओं में भी वैरी में ऋषि को देखती रही,
पराकाष्ठा के क्षितिज़ के पार होते हैं ऐसे विरले भाव
स्व से आत्म की ओर प्रस्थान की बेला में मधु सी घुली कोई मुग्धा नायिका हो
हे नायक! कैसे मापोगे तुम उस चरित्रहीन नायिका का चरित्र?
– प्रिया वर्मा