चिदानंदमय देह तुम्हारी, विगत विकार जानि अधिकारी

चार साल पहले की बात है. 2014 के लोकसभा चुनाव के कुछ महीने पहले की बात होगी. मेरे एक मित्र शरदेन्दु मिश्रा जी मुझे अपने साथ कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में एक कार्यक्रम में ले गए.

मुझे बिलकुल पता नहीं था कि ये किस प्रकार का कार्यक्रम है. शरदेन्दु जी को भी इस कार्यक्रम के विषय में बहुत कम ही पता था. उन्हें बस ये पता था कि आरक्षण के विषय पर कोई बड़ा कार्यक्रम है. वहाँ देशभर से सवर्ण आरक्षण के विरोध में एकत्रित हुए थे और उन्होंने इसके लिए एक राजनीतिक पार्टी भी बना ली थी.

ये अपने लोगों से आह्वान कर रहे थे कि आप भले ही चुनाव हार जाओ , लेकिन चुनाव जरूर लड़ो. अगर आपको पाँच सौ वोट भी मिलता है और इसके कारण दूसरे पार्टी का प्रत्याशी हार जाता है, तो यही आपकी उपलब्धि है. हमारे इस कृत्य से हर पार्टी की हम पर नजर पड़ेगी और वो हमारी मांग मानने के लिए बाध्य हो जायेंगे.

मैंने उनसे सवाल कर दिया कि अभी जब 2014 का आम चुनाव होनेवाला है, उस से बस कुछ महीने पहले आप लोगों की ये रणनीति कांग्रेस के इशारे पर तो नहीं हो रहा है? अब जबकि भाजपा के पक्ष में माहौल बन रहा है उसी बीच आपलोग ये क्रांतिकारी फैसला कर रहे हैं. इससे पहले के पैंसठ वर्षों में पार्टी बनाकर चुनाव लड़ने का विचार आपके मन में क्यों नहीं आया?

कहीं आपलोगों का एकमात्र उद्देश्य भाजपा का वोट काटकर कांग्रेस को जितवाना तो नहीं है? इस पर वे लोग तिलमिला गए. उनके एक वरिष्ठ पदाधिकारी शर्मा जी थे, उन्होंने तुरन्त मेरा नाम सरनेम के साथ पूछा, जिससे वे मेरी जाति जान पायें और कन्फर्म कर पायें कि कोई विधर्मी तो हमलोगों के बीच नहीं प्रवेश कर गया है जो हमलोगों का विरोध कर रहा है.

जब वे कन्फर्म हो गए कि मैं ठाकुर हूँ तो उन्होंने अपने बीच के एक ठाकुर नेता को हमें कन्विंस करने की जिम्मेदारी दे दी. वे भाई साहब पूर्व प्रधानमंत्री वि.पी.सिंह के समय की पेपर की कटिंग दिखाने लगे कि इन्होंने किस प्रकार वि.पी.सिंह का पुतला जलाये जाने का वीरतापूर्वक नेतृत्व किया था.

अपनी वीरता का बखान करते-करते ये ऐसी बात बोल गए कि मेरा माथा चकरा गया. वे बोलें कि मैं श्री राम को भगवान नहीं मानता हूँ बल्कि उन्हें इतिहास का सबसे बड़ा ठाकुर मानता हूँ. मुझे उसकी जाहिलियत पर क्रोध आ रहा था. उसे ये भी नहीं पता है कि भगवान जब धरती पर आते हैं तो हम सामान्य लोगों की तरह उनके शरीर का निर्माण माता-पिता के रज-वीर्य के मिश्रण से नहीं होता है.

उनके योगमाया के प्रभाव से ऐसा प्रतीत होने लगता है कि प्रभु अपनी माता के गर्भ में हैं, पर वास्तव में ये मात्र उनकी लीला होती है. नौ महीने के बाद भी वो माता के जननांगों से नहीं निकलते, बल्कि बिलकुल से प्रगट होते हैं. भगवान राम जब अवतरित हुए हैं तो तुलसी बाबा ने ये नहीं कहा है कि उन्होंने जन्म ले लिया. बाबा कहते हैं – “भयो प्रगट कृपाला दीनदयाला कौशल्या हितकारी”. ये सब उनकी योगमाया के प्रभाव से सहज ही होता चला जाता है.

भगवान का जब वनवास हो गया है और भरत संपूर्ण अयोध्यावासियों को लेकर चित्रकूट पहुंच गए हैं और प्रभु श्री राम बहुत मुश्किल से उन्हें मनाकर अयोध्या भेज देते हैं. इसके बाद उन्हें चिंता होने लगती है कि अगर मैं यहाँ चित्रकूट में रहूँगा तो ये लोग बार-बार यहाँ आ जायेंगे. इसलिए वो महर्षि वाल्मीकि से विनती करते हैं कि हे मुनिश्रेष्ठ! हमारे लिए कोई उपयुक्त स्थान बताइये जहाँ अयोध्यावासी बार-बार न आ सकें.

तब वाल्मीकि जी जो कहते हैं वो अद्भुत प्रसंग है. सर्वप्रथम वो कहते हैं कि हे राम! पहले तो आप वो स्थान बताइये जहाँ आप नहीं हो, तो मैं आपको बताऊँ कि आप वहाँ चले जाओ. फिर वो कहते हैं –

“राम सरूप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर. अबिगत अकथ अपार नेति नेति नित निगम कह..”

अर्थात् हे राम! आपका स्वरूप वाणी के अगोचर, बुद्धि से परे, अव्यक्त, अकथनीय और अपार है. वेद निरंतर उसका ‘नेति-नेति’ कहकर वर्णन करते हैं. महर्षि आगे कहते हैं –
“जग पेखन तुम देखनि हारे, विधि हरि शम्भु नचावनि हारे. तेऊ न जानहिं मरम तुम्हारा, और तुम्हहिं को जाननि हारा..”

तुलसी बाबा वाल्मीकि जी के मुख से प्रभु श्री राम की अद्वितीय व्याख्या करवा रहे हैं. यहाँ वाल्मीकि जी विष्णु के अवतार से कह रहे हैं कि हे राम! आप ब्रह्मा, विष्णु और महेश को भी नचाने वाले हैं, जब ये तीनों ही आपके रहस्य को नहीं जानते हैं फिर इस संसार में आपको कौन जान सकता है?

तुलसी बाबा जब कहते कि ब्रह्मा और महेश भी आपके मरम को नहीं जानते हैं तो यहाँ तक बात समझ में आ जाती पर वो तो विष्णु पर भी प्रश्न उठा रहे हैं कि वो भी आपके मरम को नहीं जानते. मामला पेचीदा होता जा रहा है. आगे की पंक्तियों में वे सारे राज खोल देते हैं –

“चिदानंदमय देह तुम्हारी, विगत विकार जानि अधिकारी. सोई जानहि जेहि देउ जनाई. जानत तुमहिं तुमहिं होई जाई..”

हे राम! आपका स्वरूप चिदानंदमय है , वह अपरिवर्तनशील है , विकारों से रहित है और आपके उस स्वरूप को कोई अधिकारी पुरुष ही जान सकता है. वास्तविकता यही है कि आपको अपने पुरुषार्थ के बल पर कोई नहीं जान सकता है. जिस पर आप अनुग्रह करते हो और चाहते हो कि वो आपको जाने, वही आपको जान पाता है. और जो आपको एक बार जान लेता है वो सदा-सदा के लिए आपका ही हो जाता है.

तुलसीदास जी द्वारा प्रभु श्री राम के स्वरूप की जो व्याख्या की गई है वो महामहिम आद्यगुरू भगवान शंकराचार्य जी के ब्रह्म की ही व्याख्या है. अंतिम पंक्तियों से स्पष्ट हो जाता है कि तुलसी बाबा अपने आराध्य श्री राम के अद्वैत स्वरूप का ही वर्णन कर रहे हैं जिस स्वरूप में ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी विश्रांति पाते हैं. ऐसे ब्रह्म का उपयोग अपनी नस्लीय श्रेष्ठता को स्थापित करने के लिए वो जातिवादी जाहिल कर रहा था.

मैंने जब उपरोक्त तर्क उसके सामने रखा तो वो तिलमिला उठा. विवाद बढ़ता देख शरदेन्दु जी मुझे वहाँ से लेकर बाहर निकल आयें. फिर मैंने स्वयं को समझाया कि जिन प्रभु के मरम को समझने में ब्रह्मा, विष्णु और महेश चुक जाते हैं उनको ये जाहिल क्या समझेगा.

मैंने बाल्यकाल में बहुत समय तक भगवान श्री राम को अपना आराध्य मानते हुए भक्ति की. परन्तु बाद के काल में भारतीय दर्शन और पाश्चात्य दर्शन का लम्बे समय तक तुलनात्मक अध्ययन के परिणामस्वरूप महामहिम आद्यगुरू भगवान शंकराचार्य जी से अति प्रभावित होने के कारण उनके अद्वैत मत के प्रति विशेष आग्रही हो गया हूँ. इस कारण कई बार मेरी भी बुद्धि मोहित हो जाती है और प्रभु श्री राम के प्रति संशय उत्पन्न होने लगता है. मन में प्रश्न उठने लगता है कि जब वेद की ऋचायें ईश्वर से सौ वर्ष जीवन की कामना करती है तो भगवान राम के पिता दशरथ साठ हजार सालों तक कैसे जीवित रहे होंगे?

ऐसे अनेकों प्रश्न मेरे इस दार्शनिक मन को मथने लगते हैं. लेकिन इसी बीच फेसबुक पर मेरा परिचय एक मित्र से हुआ. उनका प्रभु श्री राम के प्रति अनुराग देखकर मैं बहुत ही लज्जित हुआ. जो भाई का मन पूजा-पाठ, कर्मकाण्ड, भक्ति आदि में रत्तीभर भी नहीं लगता है वो प्रभु श्री राम के प्रति ऐसे अनुरागी हैं और मैं मूढ़मति जो वर्षों जिनकी भक्ति की अब उनपर प्रश्न उठाने लगा हूँ.

सच कहूं तो जैसे गोपियों ने ऊधौ को श्री कृष्ण के साकार विग्रह के प्रति अनुराग जगाया वैसे ही भाई ने मुझे दर्शन के दलदल से बाहर निकाल कर श्री राम के साकार विग्रह के प्रति अनुराग जगा दिया है. ये काम भाई के अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति नहीं कर सकता था. इसके पीछे कारण यह है कि इनकी नवांश कुण्डली भगवान श्री राम से पूरी तरह नहीं तो आधी जरूर मिलती है. इनके नवांश कुण्डली के बहुत सारे ग्रहों की स्थिति भगवान श्री राम जैसी ही है. इस कारण इनका श्री राम प्रभु के प्रति अनुराग बिलकुल निश्छल है और उसमें थोड़ा भी मिलावट नहीं है. यही कारण है कि इनके भावनात्मक शब्दों का मुझ जैसे ठूँठ पर भी ऐसा असर हो पाया.

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