बात भाषा के पहले की है
नहीं भाषा तो तब भी थी
लेकिन तब उसे मुंह चलाना नहीं कहते थे
तब भी होता होगा झगड़ा
तुममें मुझमें
लेकिन तब मुंह पर प्यार से हाथ रखकर
बोलने से रोक नहीं दिया करते होगे …
तब अलग होता होगा अंदाज़
तुम्हारे लड़ने और मेरे झगड़ने का…
लेकिन एक बात कहूं …
मेरा मनाने का तरीका तब भी वही था
जो आज है…
आज भी तुम जब मेरी आँखों में
झांकते हों
तो वही पुराने आंसू
गालों से लुढ़क पड़ते हैं
जो तब लुढ़क आया करते थे….
आज भी मैं धीरे से तुम्हारे गालों को छूकर
वही अनकहा सा कह देती हूँ
जो तब ना कहते हुए भी कह देती थी..
जब प्रेम में डूबकर भी लगता था
कुछ रह गई है प्यास
या झगड़ चुकने के बाद भी
अफ़सोस रह जाता था
ठीक से मना न पाने का…
तब भाषा का अविष्कार
हमने ही किया होगा
कि कह सकूं
तुम जो हो उस जैसे को ही मैंने किया है प्यार
बावजूद इसके यदि मैं कहती हूँ
तुम ऐसे क्यों हो
तो सच मत मान लेना…
जैसे अब कहने जा रही हूँ
कि आओ फिर लौट चलें उस युग में
जब कुछ कहना नहीं पड़ता था
फिर भी हम समझ जाया करते थे
एकदूसरे की बात
जो आज चीखते हुए भी
हम समझा नहीं पाते…
आओ लौट चलें उस युग में
जब हमारी एक ही भाषा हुआ करती थी..
हमारी वही चिर-परिचित
मौन की भाषा………….